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________________ दिल्ली के तोमर दिल्ली, दिल्ली, जोगिनपुर (योगिनीपुर) आदि नामों से प्रसिद्ध मध्यकाल के प्रारम्भ से आजपर्वम्त रहनेवाली भारत की राजधानी दिल्ली की प्रसिद्धि सर्वप्रथम तोमर राजाओं के समय में हुई। इस घंश का संस्थापक ४वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में राणा बाजू था। उसका अथवा उसके उत्तराधिकारी का नाम अनंगपाल प्रथम घा, जिसने 795 ई. में यह नगर बसाया था। इस वंश में अनेक राजे हुए जो जैनधर्म के प्रति सहिष्णु थे। _अनंगपाल तृतीय-दिल्ली का तोमर नरेश | 192 ई. में विद्यमान था। उसके समय में दिल्ली में कई जिनमन्दिर बने । उसका राज्य मन्त्री नट्टलसाहु बड़ा धर्मात्मा श्रावक था, और उसके आश्रय में कवि श्रीधर ने अपना अपभ्रंश भाषा का पासणाह-चरित्र रचा था। नहलसाहु-दिल्ली के अनंगपाल तृतीय तोमर का राज्यसेठ नट्टलसाहु, जो सम्भवतया राजा का एक मन्त्री या अमात्य भी था, श्री अग्रवाल-कुल-कमल-मित्र (सूर्य), निर्मल-गुण-रत्नराशि, शुभधर्म-कर्म में प्रवृत्ति करनेवाले साहु जेजा की शीलगुणालंकृत लज्जावती तथा बान्धवजनों को सुख देनेवाली भार्या भेमड़ि से उत्पन्न उसका तृतीय पुत्र था। उसके दो बड़े भाई राहव (राधव) और सोढल थे। साह नहल अपने कुल-कमलाकर का राजहंस, गुणनिधान, रलत्रय का धारी, परदोष प्रकाशन से विरक्त, चतुर्विधदान-तस्पर, परनारी-रति से चिरत, रूपवान, अपने बच्चन का पक्का, कीर्तिवान्, सदर्शनामृत पान-पुष्ट, उत्तमधी, जिनभक्त, विद्यारसिक, धमात्मा श्रावक और धनकुवेर था। उसका व्यापार देश-विदेश में दूर-दूर तक फैला था। उसके दोनों भाई भी बड़े विधारसिक और धर्मात्मा थे। उस समय हरियाणा का निवासी. गोल्हपिता और यील्हा माता का पुत्र, अग्रवालकुल में ही उत्पन्न श्रीधर नाम का सुकवि था। उसने 'चन्द्रप्रमु-चरित्र' की रचना की थी। उसे लेकर यमुनानदी पार करके वह दिल्ली में आया, जो सुदृढ़ दुर्गा, गोपुरों, मन्दिरों, मठों, हाट-बाज़ारों, उद्यान-वाटिकाओं आदि से सुशोभित सुन्दर महानगरी थी। वहाँ हम्मीरवीर का दमन करनेवाला प्रबल प्रतापी अनंगपाल नरनाथ राज्य करता था। यहाँ उसकी भेंट अल्हागसाहु नामक श्रावक सेट से हुई जिसे कवि ने अपना 'चन्द्रप्रमचरित्र' सुनाया। उसे सुनकर अहण बहुत प्रसन्न हुआ और उसने कवि को नलसाहु से मिलाया। नट्टलसाहु के उदार आश्रय में रहते हुए उसके अनुरोध पर कवि ने 132 ई. में अपने प्रसिद्ध पार्श्वनाथ चरित्र' की रचना की थी। उसी समय के लगभग नलसाहु ने दिल्ली में भगवान आदिनाथ (ऋषभदेव) का अत्यन्त भव्य, कलापूर्ण एवं विशात मन्दिर निर्माण कराकर उसकी प्रतिष्ठा करायी थी। इस जिन-मन्दिर तथा उसके आसपास स्थित अन्य जैन एवं हिन्दू मन्दिरों को ध्वस्त करके उनकी सामग्री से ही 224 :: प्रमुख मोतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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