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PRESEXASTE
प्रशस्ति की रचना कवियों के कण्ठभूषण माथुरसंघी गुणभद्र महामुनि ने की थी, जो कि उक्त श्रेष्ठ लोलार्क के गुरु थे। आचार्य जिनचन्द्र का भी वह भक्त था। नैगम कायस्थ क्षिलिय के पुत्र केशव ने उसे लिखा था। नालिप के पुत्र गोविन्द और पाहण के पुत्र देल्हण ने सेठ द्वारा निर्मापित कीर्ति-स्तम्भ के निकट यह प्रशस्ति उत्कीर्ण की थी। मन्दिरों का निर्माण सुत्रधार (शिल्पी) हरिसिंह के पुत्र पाल्हण और पौत्र नाहई ने किया था। उपर्युक्त तीर्थ इस सेठ के नाम पर 'लोलार्कवरतीर्थ भी कहलाया। बहाँ उसने श्री जिनचन्द्रसूरि के चरणचित भी स्थापित कराये लगते हैं। सन 1170 और 1175 ई. में भी बिजोल्या में कोई प्रतिष्ठा आदि धर्म-कार्य हुए थे।
उस काल के अन्य चौहान वंशों में प्रयनपुरी (धोलका) का चण्डमहासेन (9422 ई.) अधिक प्रसिद्ध है और वह जैनधर्म का भी पोषक था। दिल्ली के चौहान भी जैनधर्म के प्रति असहिष्णु नहीं थे। नाहौल में चाहान राज्य 90 से 1252 ई. तक रहा और इस घश के लाखा, दादराय, अश्वराज, अहलदेव, कल्हण, गजेसिंह, कृतिपाल आदि राजे जैन थे। अश्वराज परम जिनभक्त था और उसने अपने राज्य में पशुहिंसा पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। उसकी पु अहिलदेव अपने पिता से भी अधिक उत्साही जैन था और भगवान महावीर का परम भक्त था। उसके समय में 1161 ई. मैं नाडौल में एक प्रतिष्ठा हुई थी और स्वयं उसने 1162 ई. में नादरा में एक विशाल महावीर-जिनालय बनवाया था तथा उसके लिए कतिपय श्रावकों एवं मुनियों की सरक्षा में बहुत-सी सम्पत्ति दान कर दी थी। अन्त में राज्य का त्याग करके वह जैनमुनि हो गया था। सन् 1228 ई. के एक ताम्रशासन से उसके दान और मुनि हो जाने का पता चलता है।
उत्तर प्रदेश में आगरा के निकट बन्दयाएर (चन्द्रपाठ) के चौहानवंश में सर्वप्रथम नाम चन्द्रपाल का मिलता है। तदनन्तर क्रमशः भरतपाल, अभयपाल, जाहड़ और श्रीबल्लाल नाम के राजे 11-12वीं शती ई. में हुए। ये राजे स्वयं तो जैनी शायद नहीं थे, किन्तु उसके पोषक अवश्य थे और उनके मन्त्री तो बसबर जैन ही होते रहे। अभयपाल का मन्त्री सेठ अमृतपाल था जिसने चन्दवाड़ में एक जिनमन्दिर दनवाया था। जाहट का मन्त्री सोदू साहु था। यह चौहान वंश आगे भी 16वीं शताब्दी तक चलता रहा। इसी की एक शाखा इटावा जिले के असाईखेड़ा में स्थापित थी। उस स्थान से भी 11वीं-12वीं शती की कई जिन-मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। स्वयं बंश-संस्थापक चन्द्रपाल ने और उसके लमेचूजातीय जैन दीवान रामसिंह-हारुल ने 196 और 999 ई. में अपने इष्टदेव चन्द्रप्रभु की स्फटिक की प्रतिमा चन्द्रपाट में अपने बनाये मन्दिर में प्रतिष्ठापित की थी। इसी नगर में 1173 ई. में माथुरवंशी नारायणसाहू की देव शास्त्र-गुरु-भक्त भार्या रूपिणी ने श्रुतपंचमीयत के फल को प्रकट करनेवाली भविष्यदत्त कथा कवि श्रीधर से लिखवायी थी।
उत्तर भारत :: 227