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बीच में कुछ समय के लिए कन्नौज गुर्जरप्रतिहारों के हाथ से निकल गया था, किन्तु इस राजा ने उसपर पुनः स्थायी अधिकार करके अपने साम्राज्य की प्रधान राजधानी मनाया। यह गरेमावर जन्ना का आ श्रमहा था। जैन साहित्य और अनुश्रुतियों में उनकी प्रभूत प्रशंसा पायी जाती है। आचार्य धप्पाडूसूरि का वह परम भक्त था । अनेक विद्वानों के अनुसार बप्पा चरित्र में उल्लिखित ग्वालियर का राजा आम यह गुर्जरप्रतिहार नागभट्ट द्वितीय ही था। कुछ अन्य विद्वान् कन्नौज के पूर्वोक्त नरेश यशोवर्मन के पुत्र एवं उत्तराधिकारी के साथ 'आम' का समीकरण करते हैं। प्रभावक चरित्र के अनुसार इस नरेश की मृत्यु 839 ई. में गंगा में समाधि लेकर हुई थो । मथुरा के प्राचीन जैनस्तूप का जीर्णोद्धार भी इसी के समय में हुआ बताया जाता है। यह धर्मात्मा राजा जिनेन्द्रदेव की भाँति विष्णु, शिव, सूर्य और भगवती का भी भक्त था।
मिहिरभोज (856-885 ई.)- नागभट्ट द्वितीय का पौत्र और रामभद्र या रामदेव का पुत्र एवं उत्तराधिकारी, कन्नौज के गुर्जरप्रतिहार वंश का सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं सर्वमहान् नरेश था। उसके समय में इस साम्राज्य की शक्ति एवं समृद्धि घरमोत्कर्ष को प्राप्त हो गयी थी। अपनी कुलदेयी भगवती का यह उपासक था; किन्तु बड़ा उदार और सहिष्णु था तथा जैनधर्म का भी प्रश्रयदाता था। घटियाला
के 86 ई. के शिलालेख से प्रतीत होता है कि इस समय उसके पूर्वज कक्कुक द्वारा निर्मापित जिनालय में कुछ संवर्धन हुआ था। काँगड़ा (पंजाब) में भी 854 ई. में कोई जिन-प्रतिष्ठा हुई थी। विक्रम सं. 919, शक 784 (सन् 862 ई.) की आश्विन शुक्ल चतुर्दशी, बृहस्पति के दिन उत्तर-भाद्रपदा नक्षत्र में इस परम महारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री मोजदेव के राज्य में और उसके द्वारा नियुक्त उसके महासामन्त विष्णुराम के साक्षात् शासन और प्रश्रय में लुअच्छगिरि (उत्तर प्रदेश के झाँसी जिले का देवगढ़) में भगवान शान्तिनाथ के मन्दिर के सामने आचार्य कमलदेव के शिष्य श्रीदेव ने श्रावक बाजु और गंगा नामक दो भाइयों द्वारा कलापूर्ण मानस्तम्भ निर्मापित एवं प्रतिष्ठापित्त कराया था। धर्मात्मा भ्रातृदय की उपाधि गोष्टिक धी, जिससे लगता है कि वे किसी व्यापारी निमम के सम्भ्रान्त सदस्य थे और उक्त शान्त्यायतन के ट्रस्टी थे। बड़नगर या बारी (पद्यारि के निकट ज्ञाननाथ पर्वत की तलहटी में एक झील के किनारे स्थित) नामक स्थान में 876 ई. में दिछहा नामक धनपति ने कोई जिनालय बनाकर उसके लिए दान दिया था। उस स्थान में उस काल के मन्दिरों आदि के अनेक भग्नावशेष हैं। उन्हीं में गडरमर (गडरिये का मन्दिर) के पश्चिम ओर स्थित जैन मन्दिर समूह के चतुष्कोण प्रांगण के बाहर यह शिलालेख मिला है। सौराष्ट्र के जैन तीर्थ गिरनार के नेमिनाथ मन्दिर के दक्षिणी प्रवेशद्वार के निकट एक छोटे मन्दिर की दीवार पर अंकित भग्न शिलालेख में भगवान् नेमिनाथ को नमस्कार करके लिखा है कि किसी महीपाल नामक सामन्त राजा के
उत्तर भारत :: 228