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हिमशीतल की राजसभा में बौद्ध विद्वानों को बाद में पराजित किया था। बड़ौदा के निकट अकोटा नामक स्थान से प्रायः इसी काल की कई जैन धातुमूर्तियाँ खुदाई में प्राप्त हुई है। मूर्तियों अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण हैं। उनमें से कुछ लेखांकित भी हैं और एक पर जिनभद्र क्षमाश्रमण का नाम भी अंकित है। एक अन्य मूर्ति पर जो लेख पढ़ा गया है, उसके अनुसार चन्द्रकुल की जैन महिला नागेश्वरीदेवी ने देवधर्म के रूप में "जीवन्तस्थायी' की यह मूर्ति निर्माण करायी थी। एक प्रतिमा ऋषभदेव की है, कुछ वक्ष-वक्षियों की हैं। सन 629 ई. में चेदि के कलचुरि नरेश शंकरगण ने जैनतीर्थ कुल्पाक की स्थापना की थी।
हर्षवर्धन की मृत्यु के उपरान्त लगभग आधी शताब्दी उत्तर भारत में अराजकता रही जो ऐतिहासिक दृष्टि से एक प्रकार का अन्धयुग है। इस काल की 687 ई. की दो लेखांकित जैन धातुमूर्तियाँ बसन्तगढ़ में प्राप्त हुई थी, और लगभग 700 ई. में बारानगर के सत्ति (शक्ति)-भूपाल के आश्रय में जैनाचार्य पचनन्दि ने अपने प्राकृत भाषा के जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति-संग्रह मामक ग्रन्थ की रचना की थी। कन्नौजनरेश यशोवर्मन
सवीं शती के पूर्वार्ध में इस नरेश ने अराजकता का अन्त करके शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित की । वह अच्छा प्रतापी, विजेता और विद्यारसिक नरेश था । कहा जाता है कि इस नरेश का सजकवि और प्राकृत काव्य 'मोडरहो' का रचयिता वाक्पति जैन था। कन्नौज का आयुधवंश
यशोवर्मन को मृत्यु के कुछ समय उपरान्त कन्नौज पर आयुधवंशी नरेशों का अधिकार हुआ, जिनमें वसायुध, इन्द्रायुध और चक्रायुध ने सवीं शती के उत्तरार्ध में क्रमश: राज्य किया। इनमें से इन्द्रायुध का उल्लेख 783 ई. में रचित अपने हरिवंश पुराण में पुन्नाटसंघी जैनाचार्य जिनसेन ने उत्तर दिशा के राजा के रूप में किया है। उसी शती के अन्त के लगभग आयुधों की सत्ता का अन्त गुर्जर-प्रतिहारों ने किया।
गुर्जर-प्रतिहार नरेश
प्रामुस्लिमकालीन राजपूत वंशों में प्रमुख गुर्जरप्रतिहार स्वयं को राम के प्रतिहार लक्ष्मण का बंशज करते थे। मारवाड़ के भिन्नमाल अपरनाम श्रीमाल नगर को इन्होंने अपना प्रथम केन्द्र और राजधानी बनाया था। उस काल में यह स्थान जैनधर्म का प्रसिद्ध गदा था । जैनों की सप्रसिद्ध श्रीमाल या श्रीमाली जाति का निकास इसी नगर से है। श्रीपाल के गुर्जर प्रतिहार वंश का संस्थापक सरिश्चन्द्र था, किन्तु
उत्तर भारत :: 221