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________________ राजर्षि देवगुप्त-गुप्तनरेश पहासेनगुप्त के पुत्र कुमारामात्य देवगुप्त ने मालया पर वार कर दिया माया अपना स्वतन्त्र शासन स्थापित किया था। वह जैनधर्म का अनुयायी था और श्रेष्ठ युद्धवीर एवं राजनीतिज्ञ था। थानेश्वर के राज्यवर्धन के हाथों पराजित होने पर वह संसार से विरक्त हो गया और अपने ही वंश के जैन मुनि हरिगुप्त से दीक्षा लेकर जैन साधु हो गया था। गुप्तकाल के जैन मन्दिरों और मूर्तियों के भग्नावशेष बंगाल, बिहार, उड़ीसा, गुजरात, मध्यभारत, उत्तरप्रदेश, पंजाब और उत्तर-पश्चिमी सीमान्त तक में प्राप्त हुए हैं। मथुरा, हस्तिनापुर, देवमढ़, कहा, वाराणसी, राजगिरि (बिहार), पुण्डवर्धन, विदिशा, वल्लभी, उज्जयिनी आदि उस काल के प्रसिद्ध जैन केन्द्र थे। कन्नौज के मोखरि और वर्धन छठी शताब्दी के मध्य के लगभग गुप्तों के पराभव पर उनके ही एक मोखरि सामन्त ने कन्नौज को राजधानी बनाकर कन्नौज से बिहार पर्यन्त अपनी स्वतन्त्र सत्ता जमा ली थी 1 बंगाल के शशांक द्वारा अन्तिम मोखरि गृहवर्मा की युद्ध में मृत्यु हो जाने पर इस वंश का अन्त हुआ और उसका स्थान उसके साले, थानेश्वर के हर्षवर्धन लिया। सम्राट हर्षवर्धन (606-647 ई.) प्रतापी नरेश था और शीघ्र ही प्रायः पूरे उत्तरापथ पर अपना एकाधिपत्य स्थापित करने में सफल हो गया था। बौद्धधर्म की ओर उसका विशेष झुकाव था, तथापि वह सर्वधर्म समदर्शी, विद्वानों का आदर करनेवाला उदार और दानी नरेश था। अपनी राजधानी कन्नौज में तथा प्रयाग में वह विद्वत-सम्मेलन करता था, जिनमें यह बौद्ध, जैन (निर्ग्रन्थ), शैव और वैष्णव साधुओं एवं विद्वानों को आमन्त्रित करता और यथेच्छ दान देकर उन्हें सन्तुष्ट करता था। उसके समय में चीनी बौद्ध यात्री हेनसांग भारत आया था, सजधानी में भी रहा था। उसके यात्रा-वृत्तान्त से पता चलता है कि पश्चिम में अफगानिस्तान से लेकर पूर्व में बंगाल पर्यन्त और उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में कुमारी अन्तरीप पर्यन्त प्रायः प्रत्येक प्रदेश में निम्रन्थ (जैन साधु) और उनके अनुयायी पाये जाते थे। धीरदेव क्षपणक नामक जैन विद्वान् हर्ष के राजकवि खाण का मित्र था और सम्भवतया हर्ष की राजसमा का एक विद्वान था। सुप्रसिद्ध 'भक्तामरस्तोत्र' के रथयिता जैनाचार्य मानतुंग भी इसी समय हुए माने जाते हैं। जैकोबी आदि कतिपय विद्वान् उनका सम्बन्ध हर्ष से जोड़ते हैं। सम्भव है कि उपर्युक्त वीरदेव क्षपणक मानतुंग के शिष्य हों। इसी काल में बलभी के मैत्रकर्वशी नरेश शिलादित्य प्रथम के आश्रय में श्वेताम्बराचार्य जिनमतगणी-क्षमाश्रमण ने अपना सुप्रसिद्ध विशेषावश्यक-भाष्य 609 ई. में रश था और कर्णाटक के जैनाचार्य भट्टाकलंकदेय ने कलिंगनरेश 220 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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