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में गुप्त सम्राटों का करद सामन्त और उस प्रदेश का शासक भटार्क था, जिसका अपानाम सम्भवतः धरसेन या धबसेन भी था। यही राजा बलभी के मैत्रकवंश का संस्थापक था। उसके प्रश्श्रय में 453 ई. (मतान्तर से 456 ई.) में आचार्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने एक यतिसम्मेलन बुलाकर उसमें श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित आगम सूत्रों का वाचन और संकलन किया तथा प्रथम बार उन्हें लिपिबद्ध किया था। जैनश्वेताम्थर साहित्य के इतिहास में यह घटना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। यों वलभी उसके दो-एक शताब्दी पहले से ही जैनों का एक गढ़ रहता आया था.चौथी शती के प्रारम्भ में भी नागार्जुनसरि ने वहाँ आगमों की याचना की थी।
हूणनरेश तोरमाण-पश्चिम सीमान्त से भारत में प्रविष्ट होनेवाले बर्बर हूणों के दुदन्ति आक्रमणों ने गुप्त साम्राज्यों को जर्जर कर दिया था। जिस बर्बर, कर, भारतीय धर्म-विरोधी, विदेशी और अत्याचारी हूण सरदार ने लगभग 40 वर्ष पर्यन्त गुप्त सम्राटों और भारतीय जनता को त्रस्त किये रखा, वही जैन अनुश्रुति का, महादीर-निर्वाण के एक सहस्र वर्ष के भीतर होनेवाला चतुर्मुख कल्कि रहा प्रतीत होता है। और कल्कि की मृत्यु के उपरान्त उसके अजितंजय नामक जिस पुत्र के धर्मराज्य का उल्लेख आता है, वह उक्त हूण सरदार का पुत्र एवं उत्तराधिकारी लोरमाण या तोराराय ही प्रतीत होता है । चन्द्रभागा (चिनाब) के किनारे स्थित पवैया नामक नगरी उसकी राजधानी थी। सम्पूर्ण पश्चिमोत्तर सीमान्त, पंजाब, मथुरा पर्यन्त उत्तर प्रदेश और मध्यमारत के ग्वालियर, एरण आदि प्रदेशों पर उसका अधिकार था। वह शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन आदि सब धर्मों के प्रति सहिष्ण एवं उदार और अपेक्षाकृत सौम्य प्रकृति का था। एक जैन अनुश्रुति के अनुसार गुप्तवंश में ही उत्पन्न जैनमुनि हरिगुप्त ने उस ददर हमनरेश पर आध्यात्मिक एवं नैतिक विजय प्राप्त करके उसे अपना भक्त बना लिया था। उसके आग्रह पर वह कुछ वर्ष उसकी राजधानी में भी रहे। लगभग 473 से 515 ई. तक उसका राज्यकाल रहा।
श्रावक नाथशर्मा-बंगाल देश के पहाड़पुर स्थान का निवासी वह सद्गृहस्थ और उसकी पत्नी, बड़े जिनभक्त और धर्मात्मा थे। पहाइपुर-ताम्रपत्र के अनुसार गुप्त सम्राट् बुधगुप्त के शासन काल में, गुप्तसंवत् 139 अर्थात् 478 ई. में इस दम्पती ने राजपुरुषों को साक्षी से रंगदेशस्थ पुण्ड्रयर्धन के बटगोहाली नामक विशाल जैनबिहार को स्वर्णमुद्राओं का दान किया था। इस संस्थान के संस्थापक एवं संरक्षक पंच-स्तूप-निकाय के वाराणसी-निवासी जैनाचाय गुहनन्द्रि के शिष्य-अशिष्य थे। उक्त दान का मुख्य हेतु, जिन प्रतिमा की स्थापना और अहन्तों की नित्यपूजा की अवस्था थी। दिगम्बर मुनियों की पंचस्तूपान्वयी शाखा, जो कालान्तर में मूलसंधान्तर्गत सेमसंघ में परिवर्तित हो गयी और जिसका निकास मूलतः सम्भवतया हस्तिनापुर के पंचस्तुप से था, उस काल में पर्याप्त प्रभावशाली थी। उत्तर में हस्तिनापुर, मथुरा और काशी. पूर्व में बंगाल और दक्षिण में महाराष्ट्र एवं कर्णाटक पर्यन्त उसका प्रसार था।
उत्तर भारते::219