________________
और पौराणिक हिन्दू धर्म के विकास के साधक तथा उसके प्रबल पोषक एवं समर्थक थे। जैनधर्म के प्रति वे भी असहिष्ण नहीं थे, किन्तु इसे राज्याश्रय भी प्राप्त नहीं था। वंशसंस्थापक चन्द्रगुप्त प्रथम (319-325 ई.) का पिता श्री गुप्त बौद्ध था, किन्त वह स्वयं शायद ब्राह्य धर्म का ही अनुयायी था, वैसे उसके अभ्युदय का मूलाधार भगवान महावीर के कुल में उत्पन्न पाटलिपुत्र के तत्कालीन लिच्छविनरेश की एकमात्र दुहिता कुभारदेवी के साथ उसका विवाह होना था। उसी लिच्छविरानी का पुत्र भारी विजेता समुद्रगुप्त हुआ। उसका उत्तराधिकारी ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त (575-379 ई.) था, जिसका अनुज एवं उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (8785-414 ई.) इस वंश का सर्वाधिक प्रसिद्ध, प्रतापी एवं शक्तिशाली सम्राट् था। उत्सके पुत्र कुमारगुप्त (414-455 ई.) और पीत्र स्कन्दगुप्त (455-467 ई. के समय में साम्राज्य की शक्ति एवं प्रतिष्ठा बनी रही, किन्तु तदुपरान्त अदनलि प्रारम्भ हो गयी और विशेषकर श्वेत हूणों के आक्रमणों तथा सामन्तों के विद्रोहों के परिणामस्वरूप छठी शती ई. के मध्य के लगभग समाप्तप्राय हो गयी। गुप्त-युग में जैनधर्म को प्रायः कोई राज्याश्रय प्राप्त नहीं था। राज्ययंश के अतिरिक्त कोई बड़ा सामन्त-सरदार, राज्यपदाधिकारी और सह-माहकार श्री सामान ही हानथापित कुछ-एक उल्लेखनीय नाम प्राप्त होते हैं। अनेक पुराने जैन केन्द्र भी बहुत कुछ फलते-फूलते रहे। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों के जैन साधुओं का पश्चिमोत्तर सीमान्त से लेकर बिहार, बंगाल और उड़ीसा पर्यन्त स्वच्छन्द विहार था और चीनी-यात्री फाधान के यात्रावृत्त से प्रकट है कि साम्राज्य के जनसामान्य पर खान-पान सम्बन्धी जैनी अहिंसा का पूरा प्रभाव था-मध-मांस-सेवन का प्रचार अत्यन्त विस्ल था।
सर्वप्रथम प्राप्त उल्लेख गुप्त संवत् 37 (376 ई.) का है, जब मदरा में एक जिन प्रतिमा प्रतिष्ठित की गयी थी।
___ महाराजाधिराज रामगुप्त द्वारा प्रतिष्ठापित कई जिनमूर्तियों विदिशा के निकर दुर्जनपुर से प्राप्त हुई हैं। उनमें से दो चन्द्रप्रभु (Bथे तीर्थकर) की हैं और एक पुष्पदन्त (9वें तीर्थकर) की है। इन प्रतिमाओं को उक्त गुप्त सम्राट ने पाणिपात्र (दिगम्बर) मुनि धन्प्रक्षमाचार्य श्रमण के प्रशिष्य, आचार्य सर्वसेन श्रमण के शिष्य और गोलक्यान्त्य के सुपुत्र चेलु श्रमण के उपदेश से प्रतिष्ठापित किया था।
दण्डनायक आमकारदेव-इन्दान का पुत्र और सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का एक चीर दण्डनायक था। गुप्त संवत् 99 (412 ई.) के साँची के एक शिलालेख के अनुसार इस जैन सेनानायक ने काकनाबोर के बिहार में नित्य जैन साधुओं के आहार-दान के निमित्त तथा रलगृह में दीपक जलाने के लिए ईश्वरवासक नाम का गाँव और 25 स्वर्ण टीनारों का दान किया था।
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्न-विदलों में परिमणिल क्षपणक नायक
उत्तर भारत:217