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उत्तर भारत (लगभग 200 ई.-1250 ई.)
नाग-वकाटक युग तीसरी शती ई. के मध्य के लगभग कुषाणों का पराभव होने पर मधुरा, कौशाम्बी, अहिच्छत्रा आदि में स्थानीय मित्रवंशी राज्य, कई प्रदेशों में पौधेय, मद्रक, अर्जुनायन आदि युद्धोपजीवीं मणराज्य और अनेक क्षेत्र में पारशिय मांगों की स्वतन्त्र सत्ता स्थापित हुई। तीसरी शती में पूर्वी एवं मध्य भारत में शैवधर्मानुयायी नाम राजे हो सर्वाधिक शक्तिशाली थे। धर्म के विषय में वे प्रायः उदार और सहिष्णु थे। विदिशा, पद्मावतीपर, मथस, अहिवरात्रा आदि उनके कई प्रमुख केन्द्र जैनधर्म के भी पवित्र तीर्थ और अच्छे केन्द्र थे। जैन अनुश्रुतियों में नाग जाति को विद्याधरों का यंशज कहा है। बाद में श्रमणधर्मी प्रात्य-क्षत्रियों में इनकी गणना होने लगी । तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ के साथ इस जाति का घनिष्ठ सभ्यन्ध था। किन्तु इस काल में यह जाति शैवमतानुयायी धी। जैनधर्म को कोई राज्याश्रय प्राप्त नहीं था। कोई उस्लेखनीय जैन भी इस काल में नहीं हुआ। जैनों की पद्मावतीपुरवाल जाति यह अवश्य सूचित करती है कि नागों की एक प्रमुख राजधानी पद्मावतीपुर (ग्वालियर राज्य का पवाया) उस काल में जैनों का अच्छा मढ़ रहा होगा ।
नागों के प्रायः साथ-ही-साथ विशेषकर मध्य एवं पश्चिम भारत में क्काटकवंशी राजे हुए जो चौथी शती ई. के प्रायः मध्य तक अच्छे सत्ताधारी रहे। उनके युग एवं राज्य में भी जैनों की नागों के समय-जैसी स्थिति रही।
गुप्तकाल
320 ई. के लगभग गुप्त-राज्य की स्थापना हुई और चौथी शताब्दी के मध्य से लेकर प्रायः छठी शताब्दी ई. के मध्य तक गुप्त-साम्राज्य ही सम्पूर्ण उत्तर भारत की सर्वोपरि राज्यशक्ति था । यह युग भारतीय साहित्य और कला का स्वर्णयुग माना जाता है। देश समृद्ध और सुखी था। पाटलिपुत्र गुप्त-साम्राज्य की प्रधान राजधानी थी और उपलयिनी उपराजधानी थी। गुप्तनरेश वैष्णव धर्मानुयायी परम-भागवत थे
216 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ