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पुरवराधोश्वर कहते थे। इस वंश का तीसरा राजा मांगनृप था। उसका पुत्र अब्बिनृप था, जिसका पुत्र गोविन्दर हुआ। गोविन्दर का पुत्र इसंगोल प्रथम गुपचन्द्र के शिष्य नयकीर्ति सिद्धान्तचक्रवती का गृहस्थ-शिष्य {1177 ई.) था। उसका पुत्र भोगनृप हुआ। भोगनप का घुत्र बभनप था, जिसकी भद्र लक्षणांवाली रानी बावलदेवी कलियर्म की पुत्री थी। इन दोनों का पुत्र इरुंगोल द्वितीय था। इस राजा ने 1232 ई. में अपने आश्रित गंगेयन-मारेय के निवेदन पर उसके द्वारा निमापित जिनालय के लिए भूमिदान दिया था। यही राजा अथवा इसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी इरुमोलदेव-चोल-महाराज था, जिसने 1278 ई. में मल्लिसेष्टि द्वारा निमापित जिनालय के लिए प्रभूत दान दिया था। वे राजे निगलंक-मल्ल, परनारी-सहोदर, शरणागतवज्रपंजर, महामण्डलेश्वर आदि विरुदधारी थे। उनके पहाड़ी दुर्ग एवं प्रधान गढ़ का नाम कालाजन था। उसकी चोटियाँ बहुत ऊँची थी, जिसे देखकर लोक में उसका नाम निडुगल प्रसिद्ध हुआ। इस वश में सामान्यतया जैनधर्म की प्रवृत्ति थी और कई राजे तो परम जैन थे, यथा इरुगोल प्रथम, जिसे 1149 में विष्णवर्धन होयसल ने एक युद्ध में पराजित किया था और जिसके धर्मगुरु देशीगण-पुस्तकगच्छ के नयकीर्ति-सिद्धान्तिदेव थे, और उपर्युक्त इसंगोल द्वितीय एवं ललीय!
गंगेयन-मारेय और बाथलेनिङ्गलवंशी राजा इगोल द्वितीय के पावधोपजीवी गंगेयनायक की पत्नी थामा से उत्पन्न पुत्र गंमेयन-मारेय बड़ा धर्मात्मा सम्भ्रान्त श्रावक था। उसने नेमिपण्डित से श्रावक के प्रत लिये थे और कोण्डकुन्द्रान्वय-पुस्तकगच्छ-वाणय-बलिय के वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रावती के शिष्य विश्वविश्रुत पद्मप्रभमलधारिदेव की चरणसेवा करके उसने अपने मनोभिलषित अर्थ की प्राप्ति की थी। उसकी भार्या बाचले भी बड़ी धर्मात्मा थी। इस दम्पती मे निगल पर्वत के ऊपर, बदरताल के दक्षिण में एक शिला के अग्रभाग पर पाजिन-बसदि का निर्माण कराया था, जिसे जोगवट्टिगे-यसदि भी कहते थे। इस जिनालय में भगवान् की नित्यपूजा, महाभिषेक
और चतर्वेधदान के लिए गंगथन-मारेय को पली साचले की प्रार्थना पर महाराज इरुगोल द्वितीय ने 1282 ई. में धारापूर्वक कुछ भूमित्रों का दान दिया था। गंगथन-मारेयन-हल्लि नामक ग्राम के किसानों ने भी अखरोट, शान आदि का और लियों ने तेल का दान दिया था।
___ मल्लिसेष्टि-संगय का पौत्र और घोम्मिसेट्टि का पुत्र था। उसकी जननी का नाम मेलम्बे था। यह मूलसंध-देशीगणा-पुस्तकगच्छ-इंगलेश्वरबलि के आचार्य त्रिभुवनकीर्ति-रावुल के प्रधान शिष्य बालेन्दुमलधारिदेव का प्रिय गृहस्थ शिष्य था। उसने स्वस्थान तैलंगरे के जोगमट्टिगे मुहल्ले में ब्रह्मजिनालय निर्माण कराके उसमें प्रसन्न-पानदेव की प्रतिषा की घी और 1278 ई. में जब इरुगोलदेव-चोलमहाराज अपने पृथ्वी-निडगल के प्रासाद में सुखपूर्वक रह रहे थे, उनकी सहमति-पूर्वक उक्त जिनालय के लिए सुपारी के 20 वृक्षों की फसल के दो भाग {दो या इस प्रतिशत
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219: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं