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शीलवान, विविधकला-प्रवीण, मुणवमरी लक्ष्मीदेवी उसकी धर्मपल्ली थी, और बड़ा भाई विद्वज्जनबन्धु, अतियों का आदर करनेवाला, मन्त्री श्रेष्ठ चट्टराज था तथा सुपुत्र प्रतापी, शूरवीर, यशस्वी और दानी बोगदेव था। मन्त्री महराज और सेनापति कृचिराज इन दोनों भाइयों की जोड़ी भरत और बाहुबलि तथा राम और लक्ष्मण के समान समझी जाती थी। भगवत् वीरसेन, जिनसेन और गुणभद्र की शिष्य सन्तति में उत्पन्न मूलसंघ-सेनगर पोगरिगच्छ के मुनि महासेन के शिष्य पपासेन गतिनाथ का यह परिवार गृहस्थ-शिष्य था। विशेषकर कूचिराज को उक्त योगीश्वर का पाद-पद्य-आराधक और उसके पुत्र बोणदेव को पाद-युग-भक्त कहा है। जब कृचिराज की प्रिय पत्नी धर्मात्मा लषमीदेवी का स्वर्गवास हो गया तो स्वगुरु पद्मसेन भट्टारक के उपदेश से उसने उसकी स्मृति में लक्ष्मी-जिनालय माम का भव्य मन्दिर निर्माण कराकर उसमें मूलनायक के रूप में भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठापित की
और 1171 ई. में उस जिनालय के लिए एक ग्राम स्वगुरु को पादप्रक्षालन-पूर्वक समर्पित किया। वह ग्राम उसने पूर्व नरेश महादेवराय से प्राप्त किया था और तत्कालीन नरेश रामदेवराय की सहमति से उसे दान किया था। उसी अवसर पर उसको प्रेरणा से माचि के पुत्र हरियगौड़, माक के पुत्र योगगौड़ और सोम के पुत्र समगौड नामक उक्त मण्डल के प्रमुखों और सेटियों ने भी सुपारी का एक उधान, एक दुकान तथा अन्य दान दिया था। लेख में लिखा है कि रामदेव भूपरत्व का पादपोपजीबी यह सामन्त कृचिराज दण्श स्थिर-धुण्य, उत्तम्पयश प्राप्त साहित्य-सत्याश्रय था और परम्म राजगुरु श्रीमज्जिन-मट्टारकदेव की प्रभावना में सत्तल प्रयत्नशील रहता था।
दण्डेश माधव अपरनाम माडिमोड राजा रामचन्द्रराय का एक सेनापति था, भट्टारक माधवचन्द्र का गृहस्थ-शिष्य था और महादेवण्ण तथा रामा का पुत्र था। इस दण्डनायक नालप्रभु माडिगौड ने एक बिमालय बनवाया और समस्त सांसारिक बन्धनों का परित्याग करके 1292 ई. में समाधिमरण किया था।
शिरियमगौद्धि-यादव रामदेव के मण्डलेश्वर कोटिनायक का नालप्रभु शिरियमगौड समचन्द्र मलधारी का शिष्य और कल्लगौड़ का पुत्र था। उसने 1296 ई. में समाधिमरण किया था। उसकी भार्या शिरियमगौडि ने 1299 ई. में समाधिमरण किया था। वह बड़ी गुणवान्, शीलवती, उदार और धर्मात्मा थी। अनेक जिनालयों काः गोर्णोद्धार कराया था। सम्यक्त्व-रत्नाकर, दानविनोद, जिनगन्धोदक-पवित्रीकृतोत्तमांग आदि उसके विरुद थे। निडुगलवंशी राजे
12वीं-12वीं शताब्दी में इस वंश का राज्य मैसूर प्रदेश के उत्तरी भाग के एक हिस्से पर था। ये राजे अपने आपको चोल महाराज, मार्तण्ड-कुलभूषण और उरैयूर
पूर्व मध्यकालीन दक्षिण के उपराज्य एवं सामन्त वंश : 211