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ये राजे क्रमशः सष्ट्रकूटों, चालुक्यों और होयसालों के सामन्त रहे। इस वंश के चन्द्रशेखरवंग प्रथम को 1140 ई. के लगभग विष्णुवर्धन होयसल ने पराजित करके युद्ध में मार डाला था और उसके राज्य को हस्तगत कर लिया था। परन्तु बंगराज के स्वामिभक्त पुरोहित, मन्त्री आदि ने उसके बालकपत्र वीरनरसिंह को मलेनाह में छिपाकर रखा होयसल नरसिंह धर्म के समय में जब बालक वयस्क हुआ तो उसने
अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लिया और 1157 से 1208 ई. तक राज्य किया। तदनन्तर उसके ज्येष्ठ पुत्र चन्द्रशेखरश्चंग द्वितीय ने 1208 से 1225 ई. तक, द्वितीय पुत्र पाण्ड्यप्प-बंग ने 1225 से 1299 ई. तक और पुत्री बिट्टलादेवी ने 1246 से 1244 ई. तक राज्य किया।
रानी विठ्ठलादेवी और कामिराय वीर नरसिंह बंगनरेन्द्र राजपत्री महारानी बिहुलादेवी बड़ी विदुषी, धर्मात्मा और सुयोग्य शासिका थी। अपने लगभग 4 वर्ष के शासनकाल में उसने राज्य की अच्छी अभिवृद्धि की और अपने पुत्र कामिसब को समुचित शिक्षा-दीक्षा दी। उसके बयस्क हो जाने पर राज्यकार्य उसे 'सौंप दिया और स्वयं उससे विराम लेकर अपना समय धर्मध्यान में व्यतीत किया । उसका प्रिय पत्र एवं उत्तराधिकारी कामिसय वीरनरसिंह बंगनरेन्द्र विद्यारसिक, उच्चशिक्षित युवक एवं कुशल प्रशासक था। उसके विधायुरु, राजगुरु एवं धर्मगुरु आचार्य अजितसेन थे। उन्होंने अपने इस प्रिय शिष्य के लिए मारमंजरी और अलंकार-चिन्तामणि नामक संस्कृत ग्रन्थों की रचना की थी और विजयवाणी ने उसी के लिए श्रृंगाराणव-चन्द्रिका को रछना की थी। इस राजा ने 1245 से 1275 ई. के लगभग तक राज्य किया। वह राय, रायभूप, जैनभूप और मात्र कामिराय भी कहलाता था। उसे गप्पापांच और राजेन्द्रपूजित भी कहा गया है। इसी प्रकार उसकी माता भी शीलविभूषण विठ्ठलाम्बा या चिट्ठलपहादेवी अपने गुणों के लिए सर्वत्र विख्यात थी। वारंगल के ककातीय नरेश
1वीं शताब्दी ई. के मध्य के लगभग तैलंगाने में पकातीय वंश का उदय हुआ। यारंगल उसकी राजधानी थी। शीघ्र ही यह अच्छा स्वतन्त्र राज्य हो गया था
और [वीं शती में अपने चरम उत्कर्ष पर था। वारंगल अपरनाम एकौलपुर पहले से ही जैनधर्म का केन्द्र रहा था। इस प्रदेश में जिला विशाखापट्टनम जैनों का गढ़ घा और उसी जिले में रामतीर्थ का जैन संस्थान दूर-दूर तक प्रसिद्ध था। इसी जिले के भोगपुर नगर में पूर्वी गंगनरेश अनन्तवर्मन के आश्रय में राज्य श्रेष्ठ काम-नायक ने राज-राज-जिनालय नाम की बसदि का निर्माण कराया था तथा 1187 ई. में उसी सेठ के नेतृत्व में उस जिले के प्रमुख व्यापारियों ने उक्त मन्दिर के लिए प्रभूत दान दिया था। अनन्तपुर जिले के लाडपत्रीनगर के निवासी सोमदेव और कंचलादेवी के धर्मात्मा पुत्र उदयादित्य ने 1198 ई. में जैनमन्दिर बनवाकर उसके लिए स्वगुरुओं
पूर्व मध्यकालीन दक्षिण के उपराज्य एवं सामन्त वंश :: HAR