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का प्रतिक्षित 1 गुमटियां की जा रही थीं। इन्हीं में सव: 'प्रसिद्ध जिनालय चन्दतालसदि था. जितके लि? पूतकाल मगरकों में पान दिया था और अब
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मभन को समान .. है। इसका बार
1. 11 it Perly .. पर उत्कीर्ण हैं, 'गाव नरेश द्वारा उक्त बसदियों के लिए पुरतन नानी की पुष्टि एवं नवीन भूमिदान का विवरण मास ती तिमाहीन साहाय जयकोस अपरनान्द्राधापीरेंच को गुरूपरम्पग भी दी है। यह दामनन्द भट्टारक के संघमा चन्द्रकीति के प्रशिप्य और दिवाकरनन्दि के शिष्य थे।
1001 ई. के एक शिलालेख के अनसार गंगास मरियपगडे पिल्दुवष्य ने पिदवि ईश्वरदेव नामक मन्दिर बनवाकर उसमें अनियों के आधारहान के लिए
भूमिदान दिया था। यह राजा और इसके द्वारा निर्मापित उक्त मन्दिर जैन थे, ऐना विद्वानों का अनुमान है ! ऐसा जागला है कि यह व्यक्ति उपयंका नलिसंगाल्व का अनुज अशधा कोई निकट सम्बन्धी था।
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अलुपवंश
अलुप या अनुधवंशी सामन्त रानावना के शासक थे । इनका उदय 10वीं शनी में हुआ, किन्तु यह प्रदेश उसके बहुत पूर्व से ही जैनधर्म का गद रहता आया था। पुद्धिी , गेससाणे, भट्टकल, कार्कल, विलिंग. सोद, श्वासे, हाइलिल, होन्नावर आदि उसके प्रायः सब ही प्रसिद्ध नगर जैनधर्म के केन्द्र था और प्रायः पुरे मध्यकाल में भी बने रहे। जवान अलुपेन्द्र (1154-55 ई.) इस वंश का प्रसिद्ध राजा था। उसके उत्तराधिकारी के समय में राजकुमार कुमारराय + 1161 ई. में जैन केन्द्र कैरेयासे में एक जिनालय के बनवाने में सहयोग दिया था। कुलशेखर-अलुपेन्द्र प्रथम (11761 24940 ईके समय में तुलदेश में जैनधर्म को राजकीय प्रश्य प्राप्त था। इस राजा ने मालधारिदेव, माधवचन्द्र, अभाचन्द्र आदि तत्कालीन जैन गुरुओं का सम्मान किया था। पाण्ड्यदेव-अनुपेन्द्र ने 1246 ई. में नग्नूर की बेन बसद्धि के लिए दान दिया था। कुलशेखर अलुपन्द्र तृतीय (लगभग 1384 ई.) बड़ा वैभवशाली राजा शा, लसिंहासन पर बैठता या और मुक्ट्रिी के पाश्वनाथदंव का परम भक्त था। बंगवाडि का बंगवंश
तलवदेश के एक भाग का नाम बंगवाह था। इसके संस्थापक बंगराने सोमवंशी क्षत्रिय थे और प्राचीन कदाम्बों की एक शाखा में से थे। गंगवाडि के गंगयों के अनुकरण पर उन्होंने स्वयं को शंग और अपने गुञ्च को बंगवाडि नाम दिया लगता है। यह यंश प्रारम्भ से अन्त पर्यन्त, गंगों की ही भाँति जैनधर्म का अनुयायी रहा।
219 :: प्रमुख तिहासिक जैन पुरुष और महिला