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________________ लगभग अरकेरे में स्वगुरु कलाचन्द्र के शिष्य-प्रमलचन्द्र भट्टारक के लिए एक बसदि बनवाकर राजा की अनुमति-पूर्वक दान दिया था। इस राजा का पुत्र एवं उत्तराधिकारी त्रिभुवनमल्ल चोल कोगान्च-अटरादित्य था, जिसके पादाराधक रावसेट्टि के पौत्र लामन्त घूधय नायक ने 1100 ई. के लगभग पयनन्दिदेव को भूमि का दान दिया था। तदनन्तर कोंगाल्यराज दुद्धमल्लरस ने जो सम्भव है कि उक्त त्रिभुवनमल्ल का सम्बन्धी, भाई आदि या सगोत्री महासामन्त हो, प्रभाचन्द्रदेव को एक बत्तदि के निर्माण और जीणोद्धार आदि के लिए एक ग्राम प्रदान किया था। त्रिभुवनमल्ल-चाल कोगाल्व का उत्तराधिकारी सम्भवतया वीर कोंगाल्वदेव था, जो देशीगण-पुस्तकगच्छ के मेधचन्द्र विधा के शिष्य प्रभाचन्द्रसिद्धान्तवमयी का गृहस्थ-शिष्य था। उसने सत्यवाक्य जिनालय बनवाकर उसके लिए स्वगुरु को ग्रामदान दिया था। धंगाल्वंश इस वंश के राजे प्रारम्भ में चंगनाड (मैसूर राज्य का हनसूर तालुका) के शासक थे। बाद में मैसूर एवं कुर्ग जिलों में भी इनके अधिकार का विस्तार हुआ। ये स्वयं को यादववंशी क्षत्रिय कहते थे और प्रारम्भ में चोलों के, तदनन्तर होयसलों के सामन्त हुए। ग्यारहवों से लगभग पन्द्रहवीं शती तक इस वंश का अस्तित्व रहा। इसके अधिकांश राजे शैवमतानुयायी थे, किन्तु कतिपय परम जैन भी थे। राजेन्द्रचोल-नन्नि चंगाल्व-इस वंश का सर्वप्रसिद्ध जैन नरेश था। इस वीरगजेन्द्र नन्नि चंगावदेव नं 1060 ई. के लगभग चिक्कहनसाग में देशीगण-पुस्तक-गच्छ की एक बसदि निर्माण करायी थी। उसी स्थल में प्राचीन काल में दाशरथी राम ने जो जिनालय मूलतः बनवाया था और उसके लिए भूमि समर्पित की थी, कालान्तर में गंगनरेश मारसिंह ने वैसा ही किया था। इस चंगाल्व नरेश ने उस बसदि को फिर से बनवाया और उसके लिए उक्त भूमि पुनः समर्पित की थी। इस, राजा ने अन्य अनेक जिनालय बनवाये थे। हनसोगे की जिन-बसदि के नवरंग-मण्डप के द्वार पर उत्कीर्ण लाभग 1080 ई. के लेख से प्रकट है कि इस प्रसिद्ध चंगारव-तीर्थ की आदीश्वर-बसदि आदि समस्त जिनालयों पर देशोगाय-पुस्तकगच्छ-कोण्डकुन्दास्थय के दिवाकरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती के ज्येष्ठ गुरु दामनन्दि भट्टारक का अधिकार था। उनके पश्चात उन तथा अन्य आसपास की बसदियों पर उक्त गुरु के शिष्य-प्रशिष्यों का अधिकार रहा। प्रायः उसी काल के उसी नगर की शान्तीश्वर-बसदि के द्वार पर उत्कीर्ण लेख के अनुसार मूलत्तः भगवान राम द्वारा प्रदत्त दान एवं प्रसादियों का संरक्षण इस काल में पनसांगे (हनसोगे) के देशीमण-होलगेगच्छ पुस्तकान्वय के मुनिसमुदाय के हाथ में था। इन्हीं में परम तेजस्वी जयकीर्ति मुनि थे जो अनेक उपवास और चान्द्रायण व्रत करने के लिए विख्याल थे। इस तीर्य पर भगवान राम पूर्व मध्यकालीन दक्षिण के उपग़ज्य एवं सामन्त वंश :: 2477
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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