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समाधिमरण किया था ! प्रायः उसी वर्ष मुल्लूर में सजगुरु मुणसेन पण्डित ने नगर के व्यापारियों से एक मागवापी (बावड़ी) निर्माण करायी थी।
रानी पोचबरसि-राजेन्द्र चोल कोंगाल्ब की धर्मपल्ली और राजेन्द्र कोंबारद की जननी रानी पोचञ्चरसि बड़ी धर्मात्मा और जिनभक्त थी। वह मुल्लूर के पूर्वोक्त द्रविलसंधी गुणसेन पणिदत्त की गृहस्थ-शिष्या थी। इस रानी ने 1058 ई. के लगभग पार्श्वनाथ-बसहि नामक भव्य-जिनालय बनवाया था और स्वगुरु गुणसेन पण्डित की एक मूर्ति भी बनवाकर स्थापित की थी।
राजेन्द्र कोंगाल्व-राजेन्द्रचोल कोंगाल्व और रानी पोचब्बरसिका सुपत्र यह राजा बड़ा प्रतापी और धर्मात्मा था। उसने राजधानी मुगलूर में अपने पिता द्वारा निर्मापित जिनालय के लिए स्वगुरु गुणसेन पण्डिसदेव को 1058 ई. में कई ग्रामों में भूमियाँ प्रदान की धीं । उसकी माता के भी अधिकांश धर्मकार्य उसी के शासनकाल ऐं उसकी सहमति और सहयोग से निष्पन्न हुए थे। राजा ने स्त्रमुरु मुणसेन पण्डित के रहने के लिए भी 106t) ई, के लगभग उपयुक्त स्थान मुल्तुर में बनवाया था। उती काल के एक अभिलेख में कहा गया है कि वह गुरुदेव इतने प्रसिद्ध थे कि उनके गुणों का वर्णन नहीं किया जा सकता। मुल्लूर में ही 1064 ई. में गुणसेन पण्डित ने, जो परम-आईन्त्यादि रत्ननय-सकल-महाशास्त्राममादि-स्थिर-षट्-तर्क-प्रवीण व्रतपति थे और पुष्पसेन ब्रतोन्द्र के शिष्य थे, मोक्षलक्ष्मी का निकास प्राप्त किया अर्थात् समाधिमरण किया था। अपनी माता के स्वर्गस्थ हो जाने पर उसकी पुण्यस्मृति में भी इस राजा ने एक जिनालय बनवाया था और उसके लिए दान दिये थे। लगभग 30 वर्ष बाद, 1331 ई. में किसी धर्मात्मा रानी सुधणीदेवी ने उक्त मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया था। राजेन्द्र कोंगाल्व ने अपने स्वामी चोल सम्राटू की ओर से प्रारम्भिक होयसलों से जमकर लोहा लिया था। उसने लगभग 1066 ई. तक शासन किया। अब कोंपात्य राजे महामण्डलेश्वर कहलाने लगे थे।
राजेन्द्र पृथ्वीकोंगाल्द-अटरादित्य (1066-1100 ई.)-राजेन्द्र काँगाल्द का पुत्र एवं उत्तराधिकारी भी बड़ा प्रतापी और धर्मात्मा नरेश था। उसकी धर्मात्मा रानी ने 1070 ई. के लगभग, सम्भवतया स्वगुरु की स्मृति में, स्मारक बनवाया था। स्वयं राजा ने 1079 ई. में कौंगाल्व-जैनगृह अपरनाम अटरादित्य चैत्यालय नाम का भव्य जैन-मन्दिर बनवाया था। और उसकी पूजादि के लिए भूमिदान दिया था। यह सजा मूलसंघ-कारण-तगरिलगच्छ के आचार्य पद्धविमुक्त सिद्धान्तदेव का गृहस्थ-शिष्य था। स्वगुरु के लिए भी उसने एक बसदि निर्माण करायी थी। दान भी इन्हीं गुरु को दिये गये थे। यह राजा प्रभाचन्द्र-सिद्धान्ति की भी बड़ी विनय करता था। उसका यह दानशासन चार भाषाओं के झाता उसके सन्धि-विग्रहिक मन्त्री नकुलार्य ने लिखा था। लेख में इस महामण्डलेश्वर अरादित्य को वीराग्रणी, मुग्णाम्भोजराशि, विजेता, सद्भक्त, सद्धी इत्यादि कहा है। उसके एक सामन्त नल्लरस ने 1080 ई. के
20ki :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और पाहेलाएँ