SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इसकी अष्टविध-अर्चा, खण्ड स्फुटित जीणोद्धार एवं मुनि आहार-दान के हेतु राजा विजयादित्य से अपने स्वामी सामन्त कामदेव की सहमतिपूर्वक कई ग्रामों की भूमि स्वगुरु के शिष्य माणिक्यनन्दि-पण्डितदेव की पादप्रक्षालनपूर्वक दान करायी थी । लेख में धर्मात्मा वासुदेव को सकल-गुणरत्नपात्र, जिनपादपद्मभंग, विप्रकुल-समत्तुंग-रंग कहा गया है। चौघौरे कामगावुण्ड-शिलाहार विजयादित्य के मातुल लक्ष्मण सामन्त के अधीन पडलूर का ग्राम-प्रमुख एवं शासक था। वह समागमय्य और चंधचे का पुत्र, पुन्नकब्बा का पति तथा जेन्तगाकुण्ड और हेमगावुण्ठ का पिता था। उसने 1150 ई. में मडलूर में पार्श्वनाथ जिनालय बनवाकर उसकी प्रतिष्ठा करायी थी और लक्ष्मण सामन्त के निवेदन पर राजा ने उक्त जिनालय के लिए कुछ भूमि, एक पुष्पयाटिका तथा एक मकान का दान आचार्य माधनन्दि के एक अन्य शिष्य अर्हनन्दि-सिद्धान्त चक्रवर्ती को पादप्रक्षालनपूर्वक समर्पित किया था। महामात्य बाहुबलि-भोजराज द्वितीय शिलाहार के महाप्रधान एवं मन्त्रीश घे। इन्हें पंचांगमन्त्र-बृहस्पति भोजराज के राज्य के समुद्धरम में समर्थ, बाहुबलयुक्त, दानादि-गुणोत्कृष्ट आदि कहा गया है। उनकी प्रेरणा से आचार्य माधवचन्द्र-विध ने क्षुल्लकपुर में 1205 ई. में आपणासार' सून्य रनकर पूर्ण गिरा । * गंगधारा के चालुक्य प्राचीन चालुक्यवंश की एक शाखा पुलिगेरे (लक्ष्मेश्वर) प्रदेश पर राष्ट्रकूटी के सामन्तों के कार में लगभग 800 ई. से शासन करती आ रही थी। लक्ष्मेश्वर एक प्राचीन जैन तीर्थ था और विशेषकर भट्टाकलंकदेव की परम्परा के देवसंधी मुनियों एवं विद्वानों का केन्द्र रहता आया था। दसवीं शताब्दी में इस वंश की राजधानी के रूप में गंगधारा का नाम मिलता है जो सम्भवतया पुलिगेरे का ही अपरनाम या उपनगर था। इस वंश का प्रथम राजा युद्धमल प्रथम सम्भवतया बातापी के अन्तिम चालुक्य कीर्तिवर्मन द्वितीय का ही निकट वंशज था। उसके उपरान्त अरिकेसरी प्रथम, मारसिंह प्रथम, युद्धमल्ल द्वितीय, बहिग प्रथम, मारसिंह द्वितीय और अरिकेसरी द्वितीय क्रमशः राजा हुए। अरिकेसरी द्वितीय कन्नड़ी भाषा के सर्व महान् कवि आदिपक 141 ई.) का, जो जैन थे, आश्रयदाता था। उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी चबिग द्वितीय के समय में देवसंघ के आचार्य सोमदेव ने उसी की राजधानी गंगधास में निवास करते हुए, 959 ई. में अपने सुप्रसिद्ध यशस्तिलक-चम्पू की रचना की थी। नीतिवाक्यामृत नामक राजनीतिशास्त्र की रचना वह उसके कुछ पूर्व ही कर चुके थे। या राजा इन आचार्य की बड़ी विनय करता था। और उनकी प्रेरणा पर उसने अपने राजधानी लेंबूपाटक में शुभयान-जिनालय नामक मन्दिर बनवाया था। उसके पुत्र एवं उतराधिकारी अरिकेसरी तृतीय ने 918 ई. में उन्हीं सोमदेवाचार्य को उसी जिनालय AM :: प्रमुख ऐतिहासिक जैप पुरुष और महिलाएँ
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy