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________________ कि उसके कई सौ वर्ष बाद कन्नई कीव पार्वदेव निदेव चरि बामक काव्य रचकर उसकी यशोगाथा गायी थी। शुभचन्द्र के शिष्य पद्यनन्दि ने भी अपनी एकत्व-सप्तति' में उसे सामन्त-चूड़ामणि कहा है। सेनापति बोप्पण-शिलाहार विजयादित्य का जैन सेनापति था, जिसके विषय में किदारपुर-शिलालेख में लिखा है कि वह राजा विजयादित्य के लिए वैसा ही था जैसा हरि के लिए गरुड़, राम के लिए मारुति (हनुमान्) और कामदेव के लिए बसन्त । युद्धभूमि में शत्रुओं का संहार करने में वह अद्वितीय था। सजा के लिए एक विशाल जिन मन्दिर के निर्माण कराने का कार्य उसने अपने हाथ में लिया था, किन्तु उसके पूरा होने के पूर्व ही बोप्पण की मृत्यु हो गयी। मन्त्री लक्ष्मीदेव या लक्ष्मीधर विजयादित्य शिलाहार का प्रमुख जैन मन्त्री था। वह पार्वतीय दुर्ग किलेकल के दुर्गपति गोवर्धन का पुत्र और उच्च पदाधिकारी मोपय का जामाता था। राज्यप्रवन्ध में कुशल और युद्धभूमि में निपुण सैन्यसंचालक लक्ष्मीश्व साहित्यरसिक और धर्मात्मा भी था । वह 'सम्यक्त्व-भण्डार' कहलाता था और नैमिधन्द्र मुनि का गृहस्थ-शिष्य था तथा कन्नड़ 'नेमिनाथपुराण' के का जैनकवि कापार्य का आश्रयदाता था। सामन्त कालन-विजयादित्य शिलाहार का एक विद्वान, शास्त्रज्ञ, कलामर्मज्ञ, धर्मात्मा जैन सामन्त एवं वीर सेनापति था । जब सेनापति कालन अपनी पत्नी, बच्चों और मित्रों के साथ सुखपूर्वक रह रहा था तो एकदा उसने विचार किया कि इस लोक और परलोक के परमार्थ साधन का एकमात्र उपाय धर्म ही तो है। अतएव उसने 1165 ई. में सन्तीनगर में नमीश्वर-बसदि नाम का विशाल एवं कलापूर्ण एक लिनालय बनवाया था, जिसका उत्तुंग गोपुर कलापूर्ण प्रस्तरांकनों एवं मणि-खचित कलशों से युक्त था 1 उसके लिए स्वगुरु बापनीयसंघ-पुन्नागवृक्षमूलगण के मुनि कुमारकीर्ति के शिष्य महामण्डलाचार्य विजयकीर्ति को उसने प्रभूत दान दिया था। इस सुन्दर जिनालय की ख्याति सुनकर रट्टराज कातवीर्य चतुर्थ उसके दर्शनार्थ आया था और प्रसन्न होकर उसके लिए उक्त गुरु को दान भी दे गया था 1 धर्मात्मा कालन सामन्त द्वारा स्थापित इस वसदि में नित्य देवपूजा, मुनियों एवं धर्मात्माजनों के आवास तथा चारों दानों की नियमित व्यवस्था थी। सामन्त कालन सप्तभंगी न्याय का वेत्ता था और पंच-महा-कल्याणक, अष्टमहाप्रातिहार्य तथा चौंतीस अतिशय सम्पन्न जिनेन्द्रदेव का परम भक्त एवं आराधक था। श्रावक धासुदेव ब्राह्मगजातीय धमात्मा श्रावक था जो विजयादित्य शिलाहार के एक सामन्त कामदेव का आश्रित था। क्षुल्लकपुर-श्रीरूपनारायण-जिनालयाचार्य माधनन्दि-सिद्धान्तचक्रवर्ती का यह प्रिय छात्र (विद्या-शिष्य) और गृहस्थ-शिष्य (श्रावक) था। शान्तरस-प्रधान जिनदेव ही उसके इष्टदेव थे। उसने 1148 ई. में पार्श्वनाथ भगवान का एक सुन्दर जिनालय बनवाकर उसकी प्रतिष्ठा करायी थी और पूर्व मध्यकालीन दक्षिण के उपराज्य एवं सामन्त बंश :: 20%
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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