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PRATARI
उस समय राजा वलबाड में निवास कर रहा था। वहीं रहते हुए उसने 115) ई. में अपने मामा सामन्त लक्ष्मण की प्रेरणा पर महलूर में चौधारे कामगावण्ड द्वारा निर्धापित जिनालय के लिए माधनन्दि के एक अन्य शिष्य आईनन्दि को कुछ भूमि, एक वारिका तथा एक मकान दान दिया था।
मोज द्वितीय शिलाहार (1175-1215 ई.)-विजयादित्य का पुत्र एवं उत्तराधिकारी भोज द्वितीय इस वंश का प्रायः अन्तिम नरेश था, किन्तु बड़ा प्रतापी, उदार और धर्मात्मा था। प्रारम्भ से ही उसने सम्राट् पद के विरुद धारण कर लिये थे। दक्षिण में उस समय कोई अन्य साम्राज्य-सत्ता रह ही नहीं गयी थी। अपने पूर्वजों की भौति भोज द्वितीय भी जैनधर्म का पोषक और भक्त था । विशालकोति-पण्डितदेव उसकी इसी जीवन
में आचार्य सोमदेव चे जैनेन्द्र-व्याकरण की 'शब्दार्णवचन्द्रिका' नामक प्रसिद्ध टीका गुण्डरादित्य द्वारा अर्जुरिका ग्राम में निमापित त्रिभुवनतिलक नेमिनाथ जिनालय में उक्त विशालकीति के सहयोग से रची थी। राजधानी क्षुल्लकपुर (कोल्हापुर) को भी इस सजा ने अनेक सुन्दर जिनालयों से अलंकृत किया था। सन् 1212 ई. में सिंघण यादव के हाथों वह बुरी तरह पराजित हुआ और अन्ततः शिलाहार राज्य यादवराज्य में सम्मिलित हो गया।
बाचलदेवी-तेरिदाल के शिलाहार राजा गोंकिरस की माता और वीर मल्लिदेव की धर्मात्मा पत्नी थी। माधनन्द्रि-सिद्धान्तचक्रवती उसके गुरु थे और भगवान् नमिनाध उसके इष्टदेव थे। वह सीता के समान सती और धर्मात्मा रानी थी। तेरिदाल के नेमिनाथ-जिनालय की स्थापना और 128 ई. में इसकी प्रतिष्ठा एवं उसके लिए दिये गये दानादि में मुख्य प्रेरक थी।
गोंकिरस-तेरिवाल का शिलाहार राजा गोंकिरस परम जिनभक्त था। उसकी माता बाचलदेवी, पिता मल्लमहीप (मल्लिदेव), गुरु कोल्हापुर की वपनारायण बसदि के आचार्य माघनन्दि-सिद्धान्ति और इष्टदेव भगवान् नमिनाय थे। यह कोल्हापुर के अपने सगोत्रीय गण्डरादित्य का माण्डलिक राजा था। उसका ध्वजचिह्न मयूर-पिच्छ था तथा इष्टदेवी एवं कुलदेवी पदावती थी। अतएव मयूर-पिछछ-ध्वज, पद्मावतीदेवीलब्धवरप्रसाद, जिनधर्म कोलिविनोद, जिनमतागणी, शौर्य रधुजात, समर-जयोत्तंच, गरंगसिंह आदि उसके विसद थे। अपनी राजधानी तेरिदाल में उसने एक अति सुन्दर श्री नेमिनाथ-जिनालय अपरनाम गोक-जिनालय निर्माण कराया था और 1123 ई. में बड़े समारोह से उसकी प्रतिष्ठा की थी, जिनमें चालुक्य विक्रमादित्य का राजकुमार पेमडिदेव, रट्टराज कार्तवीर्य तृतीय, सामन्त निम्बरस आदि कई पड़ोसी नरेश भी सम्मिलित हुए थे। उक्त जिनालय के लिए उसने स्वगुरु की प्रभूत भूमि आदि का दान प्रादप्रक्षालनपूर्वक दिया था। वह गुणवान् धर्मात्मा राजा जिन व्रतों के पालन में भी दृढ़ था।
पूर्व मासकालीन दक्षिण के उपराज्य एवं सामन्त वंश :: 201