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की और शत्रुओं से अपने राज्य को सुरक्षित रखा। वह भारी दानी था और जैनधर्म का पोषक होते हुए भी सर्वधर्म-समदी था। कोल्हापुर के निकट प्रयाग (नदी-संगम) में उसने एक हज़ार ब्राह्मणों को भोजन कराया था और निकट ही अजुरिका (अजरेना) नामक स्थान में एक सुन्दर जिनालय बनवाया था। इसडि में गण्डु-समुद्र नामक एक विशाल सरोवर बनवाकर उसके तटपर उसने ऐसे देवालय बनवाये थे जिनमें जिनेन्द्र, शिव और बुद्ध तीनों देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित थीं। उसका प्रधान सामन्त एवं सेनापति वीर निम्बदेव परम जैन था और उसके धार्मिक कार्यों में राजा का सहयोग था। इस राजा के समय के लेरिदाल स्थान के नेमिनाथ जिनालय में प्राप्त 1123 ई. के बहत शिलालेख में चारगोक-ताश्वर को वीजाधात्रीका, जो चालुक्य त्रैलोक्यमान से विवाही थो, और उसके पुत्र पेमाद्विराय का उल्लेख है, जिसने अपने नाना के राज्य में आकर अपनी जननी के पुण्यवर्धन हेतु उक्त धर्मकार्य में योग दिया था। सौम्पत्ति के रह-राजा कार्तवीर्य तृतीय का भी उस कार्य में सहयोग था। ऐसा लगता है कि पूर्वोक्त गाँक शिलाहार का ही एक वंशज गौकदेवरस या जो तेरवाल का शासक था। उसका पिता वीर मल्लिदेव था और माता धर्मात्मा बाचलदेवी थी उक्त नेमिनाथ जिनालय का निर्माण, प्रतिष्ठा, दानादि में मुख्य प्रेरक वही थी। इन सबके गुरु रूपनारायण-बसदि के आचार्य कोल्हापुरीय माधनन्दि-सिद्धान्ति चक्रवर्ती थे, उभी के शिष्यों को दानादि दिये गये थे। एक अभिलेख में गण्डरादित्य को चैरिकान्ता-वैधव्य-दीशागुरु, धार्मिक धर्मज और सकलदर्शन चक्षुष कहा है।
विजयादित्य शिलाहार (1140-1175 ई.)-गण्डरादित्य का पुत्र एवं उत्तराधिकारी बड़ा पराक्रमी वीर था। उसने अपने पिता के समय में ही गोआ के जयकेशिन को हराया था। उसने चालुक्यों की पराधीनता का जुआ उतार फेंका और वह विजलकलचुरि द्वारा चालुक्यों को पदच्युत करके उसके कल्याणी का स्वामी बनने में प्रधान सहायक था। किन्तु जब बिज्जल ने उसे मी अपने अधीन करना चाहा तो दोनों में भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें उसके सेनापति निम्यदेव ने वीरगति पायी, किन्तु कलचुरियों को भी पराजित करके भगा दिया। विजयादित्य को शत्रुओं के लिए यमराज कहा गया है। 'कलिकाल विक्रमादित्य' एवं 'रूपनारायण उसके प्रसिद्ध विरुद थे। अपने धार्षिक उत्साह के कारण वह 'धर्मेकबुद्धि' भी कहलाता था। वह परम जैन था, श्रावक के व्रतों का पालन करता था और अपने गुरु माणिक्यनन्दि पण्डितदेव की बड़ी विनय करता था। कोल्हापुर तथा अन्य स्थानों के जिममन्दिरों को उतने अनेक दान दिये थे। निम्बदेव के अतिरिक्त उसका वीर सेनापति, बोपण मन्त्री लक्ष्मीधर और सामन्त कालन भी परम जिनभक्त थे। उनके धार्मिक कार्यों में इस राजा की सहमति एवं सहयोग था। सन् 1143 ई. में उसने अपने एक सामन्त कामदेव के आश्रित वासुदेव द्वारा कोल्हापुर में निर्मापित जिनालय के लिए कई गाँवों की भूमियाँ माघनन्दि के शिष्य माणिक्वनन्दि को दान दी थी।
20 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और पहिलाएँ
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