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र पुत्र थे। ज्येष्ठ पुत्र गोंक का राज्य अल्पकालीन रहा, किन्तु वह ऐसा जिनभक्त था कि उसने जो गोंक जिनालय बनवाकर प्रतिष्ठित किया था उसके अनुकरण पर इस प्रदेश में अगले सौ डेढ़ सौ वर्ष में कई गोंक जिनालय स्थापित हुए। उसके पश्चात् उसका अनुज गुवल प्रथम राजा हुआ, जिसने लगभग 1055 ई. तक राज्य किया। तदनन्तर गौक का पुत्र मारसिंह राजा हुआ, जिसने लगभग बीस वर्ष राज्य किया है कि सिंह ने ही गुम्ने प्रिय पिता की स्मृति में वह प्रथम प्रसिद्ध गोक- जिनालय निर्माण कराया हो। इस राजा के एक पुत्री और चार पुत्र हुए। पुत्री राजकुमारी विद्याधरा अपरनाम चन्द्रलदेवी या चन्द्रलेखा का विवाह चालुक्य विक्रमादित्य षष्ठ (1076-1128 ई.) के साथ हुआ था, जिसके कारण कोल्हापुर के शिलाहारों की प्रतिष्ठा और शक्ति बहुत बढ़ गयी। भारसिंह के उपरान्त उसके चारों पुत्रों ने क्रमशः राज्य किया---गूवल- गंगदेव (10761086), बल्लाल ( 1086-1095), भोज प्रथम (1095-1110 ) और चन्द्रादित्य ( 1110-1140 ई.)।
बल्लालदेव शिलाहार-अपने ज्येष्ठ भ्राता गूवल गंगदेव का उत्तराधिकारी था। इस महामण्डलेश्वर ने अपने अनुज गण्डरादित्य के साथ पुन्नागवृक्षमूलगण के आचार्य रात्रिमतिकान्ति के गृहस्थ-शिष्य बम्बगाण्ड द्वारा निर्माणित पार्श्वनाथ - बसदि के लिए एक पक्का विशाल भवन दान किया था। यह पार्श्वप्रतिमा कोल्हापुर जिले में कागल के निकट होन्नूर के जिनमन्दिर में है और लेख प्रतिमा के अभिषेकस्थल (पाण्डुक - शिला) के सामने उत्कीर्ण है।
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भोज प्रथम शिलाहार - अपने भाई बल्लाल का उत्तराधिकारी था। उसने लगभग 1095 ई. से 1110 ई. तक राज्य किया । इस राजा के प्रश्रय में कोल्हापुर मैं कोण्डकुन्दान्वय- देशीगण - पुस्तकगच्छ के आचार्य कुलचन्द्रदेव के शिष्य आचार्य पावनन्दि- सिद्धान्त ने शिलाहार नरेश गौक या मारसिंह द्वारा निर्मापित गोंक- जिनालय के निकट सुप्रसिद्ध रूपनारायण बसदि की स्थापना की और उसे ही अपना स्थायी निवास बनाया। अपनी उक्त बसदि को आचार्य ने जैन संस्कृति और शिक्षा का केन्द्र बनाया और उसमें एक विशाल एवं महत्त्वपूर्ण विद्यापीठ विकसित किया, जिसमें त्यागी, व्रतियों, मुनियों आदि के अतिरिक्त सामन्तपुत्र, राजपुरुष तथा सामान्य जन भी शिक्षा प्राप्त करते थे। इस राजा का एक विरुद 'रूप-नारायण' भी रहा प्रतीत होता है उसके भतीजे विजयादित्य का तो यह विरुद था ही। अब या तो आचार्य ने तत्कालीन राजा भोज के विरुद्ध के नाम पर अपने संस्थान का नामकरण किया अथवा उसके प्रश्रयदाता एवं संरक्षक होने के कारण इन नरेशों ने उसके नाम को अपना विरुद बना लिया।
गण्डरादित्य ( 1110-1140 ई.)- भोज के उपरान्त उसका अनुज चन्द्रादित्य अपरनाम गण्डरादित्य राजा हुआ। वह इस वंश का प्रसिद्ध प्रतापी नरेश था और नाममात्र के लिए ही चालुक्यों के अधीन था। उसने अनेक युद्ध किये, विजय प्राप्त
पूर्व मध्यकालीन दक्षिण के उपराज्य एवं सामन्त वंश 100