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भवान श्री सागर भी क
से उत्पन्न उसका ज्येष्ठ पुत्र सेन (कालसेन) भूपति था। कम्न (कन्नकर) की नृत्य-गीतादि कोविंद के रूप में ख्याति थी और उसके धर्मगुरु कनकप्रभ-सिद्धान्तिदेव थे, जिन्हें उसने भूमिदान दिया था। सेन का अनुज कार्त्तवीर्य (द्वितीय) था जो चालुक्य सोमेश्वर द्वितीय और त्रिभुवनमल का महामण्डलेश्वर था। इस काल में थे
राजे लूपुरवराधीश्वर भी कहलाते थे। कालसेन ने सौन्दत्ति में भक्तिपूर्वक एक जिनमन्दिर बनवाया था, जिसके लिए 1096 ई. में भूमिदान दिया था। तदुपरान्त कालसेन, कार्तवीर्य, कन्नकेर आदि कई राजा हुए, जो सब अपने पूर्वजों की भाँति जैनधर्म के अनुयायी थे। इनमें से कार्त्तवीर्य तृतीय ने शिलाहारों की राजधानी कोल्हापुर के गोंकि जिनालय में नेमिनाथ भगवान् की प्रतिमा 1123 ई. में प्रतिष्ठित करायी थी और माघनन्दि- सिद्धान्ति को दान दिया था।
कार्तवीर्य चतुर्थ- बारहवीं शती ई. के उत्तरार्ध में रहवंश का एक प्रतापी और धर्मात्मा नरेश कार्तवीर्य चतुर्थ था। वह कार्तवीर्य तृतीय का पोत्र और लक्ष्मी भूपति का पुत्र था। शिलाहार नरेशों के राज्य में स्थित एकताम्बी के नेमीश्वर- जिनालय की ख्याति सुनकर यह 1165 ई. में दर्शनार्थ वहीं गया और उक्त जिनालय की पूजा, संगीतवाद्य मुनियों के आहार दान, खण्डस्फुटित संस्कार आदि के लिए यापनीय संघ पुन्नामवृक्षमूतगण के मण्डलाचार्य विजयकीर्ति को उदार दान दिया। कार्तवीर्य ने अपनी माता चन्द्रिका महादेवी द्वारा निर्मापित रहीं के जैनमन्दिर के लिए 1201 ई. में तत्कालीन कुलगुरु शुभचन्द्र भट्टारक को कई गाँवों की भूमियों दान की थीं। इस राजा का अनुज मल्लिकार्जुन भी मारी योद्धा और धर्मात्मा था और वीर सेनापति बूचिराज भी परम जैन था, जिसने बेलगाश में रह - जिनालय नाम का मन्दिर निर्माण कराया था। कार्तवीर्य का अनुज मल्लिकार्जुन ही उसके समय में युवराज था तथा उसके राज्यकार्य में योग देता था। कार्तवीर्य चतुर्थ ने 12004 ई. में भी अपनी माता द्वारा बनवाये गये मन्दिर के लिए दान दिया था, 1205 ई. में स्वगुरु को अन्य भूमिदान दिया और उसी वर्ष सेनापति सूचिराज द्वारा निर्माति मन्दिर के लिए भी उदार दान दिया था।
लक्ष्मीदेव -- कार्तवीर्य की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र लक्ष्मीदेव द्वितीय राजा हुआ। उसके गुरु मुनिचन्द्रदेव थे। अपने उन राजगुरु की आज्ञा से लक्ष्मीदेव ने 1229 ई. में अनेक शन दिये थे, जो उसने स्वनिर्मापित मल्लिनाथ मन्दिर के निमित्त दिये थे। मुनिचन्द्रदेव राजा के धर्मगुरु ही नहीं, शिक्षक और राजनीति पथप्रदर्शक भी थे। उन्हीं की देख-रेख में शासन-कार्य चलता था। स्वयं राजा लक्ष्मीदेव ने उन्हें
राज्य संस्थापक प्राचार्य' उपाधि दी थी। कहा जाता है कि संकटकाल में उन्होंने प्रधान मन्त्री का पद ग्रहण कर लिया था और राज्य के शत्रुओं का दमन करने के लिए शस्त्र भी धारण किये थे। संकट की निवृत्ति के उपरान्त वह फिर से साधु 師 गये थे। यह कारगण के आचार्य थे। राज्यकार्य में उनके प्रमुख सहायक एवं
पूर्व मध्यकालीन दक्षिण के उपराज्य एवं सामन्त वंश :: 197