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________________ के साथ उचितिलक - जिनालय की उत्तरी पहशाला बनवाकर प्रतिष्ठित करायी और उसके लिए वासुपूज्य गुरु को दान दिया था । वालदेवी - पम्पादेवी की सुपुत्री, तेल-सान्तर (तृतीय) को दौहित्री और विक्रम - सान्तर (द्वितीय) की भानजी भी अपनी माँ की भाँति बड़ी धर्मात्मा राजकुमारी थी। वह अत्यन्त रूपयान् शीलवान्, विनयी, दानशीला और परम जिनभक्त थी। इस ifer afte एवं शील- पुंज राजकुमारी की प्रथम एवं सतत रुचि जिनेन्द्र भगवान् की अष्टविध पूजा-अर्चा में, भगवान् के महा अभिषेक में और त्रिसान्ध्यक चतुः- भक्ति मैं रहती थी। अपने उपर्युक्त सद्गुणों के कारण वह नूतन या अभिनव अन्तिमब्बे कहलाती थी। अपनी जननी और मामा के धर्मकार्यों में सहयोगिनी थी, यथा 1147 ई. के निर्माण एवं दान आदि में । पम्पादेवी के गुरु अजितसेनपण्डितदेव ही बाचलदेवी के भी गुरु थे 1 काम सान्तर - विक्रम - सान्तर (द्वितीय) के उपरान्त उसका सौतेला भाई काम सान्तर अपरनाम शान्तरादित्यदेव राजा हुआ जो तैल-तृतीय की पत्नी अक्कादेवी से उत्पन्न हुआ था। सन् 1150 ई. के हेरेकेरी शिलालेख में इस कामभूपति को पार्श्वनाथान्वयी, तीव्र-तेजोनिधि, कामदेव के समान रूपवान, वीर और धर्मात्मा लिखा है। उसकी रानी पण्डकुल में उत्पन्न हुई थी। यह बड़ी सुन्दर, शीलवती, पुण्यवती, दयालु, जिनेन्द्र भगवान् के चरणकमलों की भक्त, पति की विजयश्री एवं उसके कुल की अभिवृद्धि करनेवाली थी। उसके दो पुत्र जगदेव और सिंगदेव थे तथा एक पुत्री अलियादेवी थी। दोनों पुत्र-शस्त्र - शास्त्रकुशल, दान- विनोद, सच्चरित्र और शूरवीर थे। अलियादेवी - काम- सान्तर और रानी बिज्जलदेवी की सुपुत्री तथा जगदेव और तिमिदेव की भगिनी राजकुमारी अतियादेवी विशुद्ध आचार एवं निर्मल गुणोंवाली बड़ी धर्मात्मा नारीरत्न थी । उसका विवाह कदम्बकुल में उत्पन्न, कोकण प्रदेश के रक्षपाल शूरवीर राजा होयरस के साथ हुआ था। इन दोनों का पुत्र जिनेन्द्र पाद पंकज-पद-भृंग, गुणवान् और पुण्यवान् कुमार जयकेशिदेव था। रानी अलिवादेवी चतुर्विध दान में तत्पर, निर्मल सम्यग्दर्शन - ज्ञान- चारित्र गुणसम्पन्न, जिनराज की भक्ति में निमग्न दूसरी असिमब्बे ही थी। उसने 1959 ई. में संतु में भक्तिपूर्वक एक भव्य जिनराजामार (जिनमन्दिर) बनवाया और उसके लिए अपने पति एवं पुत्र सहित स्वगुरु भानुकीर्त्तिदेव को धारापूर्वक भूमिदान दिया था। यह गुरु काणूस्वणतिन्त्रिणीगच्छ के मुनि थे और बन्दनिके तीर्थ के आचार्य थे। बीर- सान्तर - काम- सान्तर का पुत्र या पौत्र या जो 1175 ई. में विद्यमान था । इसका विरुद भी जिनपाद-भ्रमर था। इसके उपरान्त सान्तरवंश में लिंगायत मत की प्रवृत्ति होने लगी और साथ ही वंश को अवनति भी । पूर्व मध्यकालीन दक्षिण के उपराज्य एवं सामन्त वंश : 195
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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