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की प्रतिष्ठा कराके उसके लिए उसने स्वगुरु श्रीविजय के शिष्य कमलभद्रदेव को पादप्रक्षालनपूर्वक प्रभूस दान दिया था। इस धर्मात्मा राजमहिला ने अन्य अनेक जिनालय, चैत्यालय, सरोवर, कप, बावड़ी, प्रषा, उद्यान, स्नान-घाट, सत्र अपदि लोकोपकारी निर्माण किये और आहार-अभय-भैषज्य-शास्त्र (विद्या) रूप चतुर्विध दान सतत दिये। उसने अपने पौत्र और विक्रम-सान्तर के पुत्र तैल-सान्तर (तृतीय) के सहयोग से 1108 ई. में बहन बीरलदेवी की स्मृति में हुमच्च के आनन्दूर मोहल्ले में स्थित उक्त पंचबदि के सामने एक अन्य बसदि (जिनालय) के निर्माण की नींव रखी थी और उसके लिए तथा पंचबसदि के लिए भूमिदान दिया था। यह दान पादिधर अजितसनपण्डित को दिया गया था। शिलालेखों में उस धर्मात्मा महिला के गुणों एवं धार्मिक कार्यकलापों की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी है और उसकी तुलना भवन स्तता रोहिगर, चेलना, सीता, प्रमावती असी प्राधीन नामलों के साथ की गयी है। जैनधर्म में उसका अद्भुत अनुराग था, धपकथाओं के सुनने का उसे चाव था। सान्तरों के राज्य की अभिवृद्धि का वह आधार थी, जिनधर्म के लिए वह कामधेनु थी, उसकी कीर्तिपताका दिग-दिगन्त व्यापी थी।
विक्रम-सान्तर (द्वितीय)-तैल तृतीय का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था। यह वीर, पराक्रमी और धर्मात्मा था और अमितसमपण्डितदेव का गृहस्थ-शिष्य था। अपनी धर्मात्मा बड़ी बहन पम्पादेवी के सहयोग से उसने वितिलक-जिनालय में उत्तरीय पशाले की स्थापना करके 1147 ई. में उसकी प्रतिष्ठा करायी थी और यासुपूज्य मुनि को उसके लिए दान दिया था। इसी सजा का अपरनाम श्रीवालभदेव था।
विदुषी पम्पादेवी-तैल तृतीय की पुत्री और विक्रम (द्वितीय)-सान्तर की बड़ी बहन राजकुमारी पम्पादेवी बड़ी धर्मात्मा यी। हमञ्च के 1147 ई, के शिलालेख के अनुसार उसके द्वारा नवनिर्मापित चित्रित चैत्यालयों के शिखरों से पृथ्वी भर गयी थी। उसके द्वारा मनाये गये जिनधर्मोत्सों के तूर्य एवं भेरीनाद से दिग-दिगन्त व्याप्त हो गये थे और जिनेन्द्र की पूजा के हेतु फहरायी जानेवाली ध्वजाओं से आकाश भर गया था। प्रसिद्ध महापुराण में वर्णित भगवान जिननाथ के पुण्य चरित्र का श्रवण ही उसके कानों का आभूषण था, मुनियों को चतुर्विध दान देना उसके हस्त-कंकण थे, जिनेन्द्र की भक्ति और स्तवन ही उसकी कपट-मालाएँ थी। इन अनुपम अलंकारों के रहते क्या सलभूप की यह सुता अपने शरीर पर सामान्य आभूषणों का भार होने की चिन्ता करती? एक मास के भीतर ही उसने उर्वितिलक-जिनालय के साथ सुन्दर शासन-देयता-मन्दिर निर्माण कराकर प्रतिष्ठापित कर दिया था। वह अनन्य पण्डिता थी, इसलिए साक्षात्-शासनदेवी भी कहलाती थी। उसने 'अष्ट-विधान-महाअभिषेक'
और 'चतुभक्ति' नामक ग्रन्थों की रचना की थी। आचार्य अजितसेन-बादीभसिंह की वह गृहस्थ शिष्या थी। इस धमात्मा, विदुषी पन्यादेवी ने अपने अनुज विक्रम सान्तर
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194 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ