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परोपकारी, पुण्यनिधि इन्दर था। एक दूसरा पुत्र मल्ल था जो विद्वान् और सुकवि था।
तैलपदेव (द्वितीय)-मुजवल-सान्तर- बोरव-सान्ता की धुन उत्तराधिकारी यह लैन या तैलप (द्वितीय) था जिसने अपने भुजवल से सान्ता-राज्य का मुकुट प्राप्त किया था और भुजबल-सान्तर के नाम से शान्तिपूर्वक राज्य किया था। यह भी चालुक्य सम्राट्र त्रैलोक्यमरल का महामण्डलेश्वर था और इसने भी त्रैलोक्यमल्ल उपाधि धारण की थी तथा सर्वत्र ख्याति अर्जित की थी। वह बड़ा शूरवीर और जिनपादासघक था। उसने अपनी राजधानी हुमच्च में, 105 ई. में, भुजबल-सान्तर-जिनालय का निर्माण कराके इसके लिए स्वगुरु कनकनन्दि को हरवरि गाँव का दान दिया था। इस राजा ने पट्टणसामि नोक्कय्य-सेष्टि द्वारा निर्मित तीर्थद-बसदि के लिए वीजकन-थयल का दान दिया था। अपनी पूज्या मौसी यद्दलदेवी तथा अपने तीनों भाइयों के निर्माण एवं धार्मिक कार्यों में इसका पूरा सहयोग रहता था।
नन्नि-सान्तर-बीरदेव और बीरल-महादेवी का दूसरा पुत्र गोग्गिग या गोविन्दर ही नन्नि-सान्तर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सन् 1077 ई. में अब यह जिनपादाराधक नरेश अपनी मातृतुल्या चट्टलदेथी और छोटे भाइयों आईयरस और वर्मदेव सहित शान्ति से राज्य कर रहा था तो इन लोगों में हुमच्छ की सुप्रसिद्ध पंचकूट-बसदि का निर्माण प्रारम्भ कराया था और उसकी नींव श्रेयान्सपडित से रखवायी थी। उस अवसर पर बहुत-से दानादि भी किये । इस सजा के मुरु कमलभद्र थे जो श्रीबिजब-ओडेयदेव के शिष्य थे। दान भी उन्हें ही दिये गये थे।
विक्रम-सान्तर-मुजबल और नन्नि-सान्तर का अनज और वीरदेव का तीसरत्र पुत्र ओड्ड्ग या ओड्डेयरस विक्रम-सान्तर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस राजा ने 1087 ई. में पूर्वोक्त पंच-बसदि के लिए स्वगरु अजितसेन नादीभसिंह को दान दिया था। वहीं आचार्य सुप्रसिद्ध क्षत्र-चूड़ामणि' और 'गधचिन्तामणि' नामक संस्कृत ग्रन्थों के रत्तयिता हैं। सेनबोत्र शोभनथ्य दिगम्बरदास ने उक्त दान-प्रशस्ति को लिखा था। बीरदेव और उनके पुत्रों के प्रधानमन्त्री नगलरस को भी 11981 ई. के एक शिलालेख में जिनधर्म का सुदृढ़ दुर्ग कहा गया है।
तैल (तृतीय)-सान्तर- अपरनाम त्रिभुवनमाल सान्तर पूर्वोक्त ओड्डग अपरनाम विक्रम-सान्तर का ज्येष्ठ पत्र था। उसकी जननी पाण्ड्य राजकुमारी चन्दलदेवी थी
और छोटे भाई गोविन्द और योप्पुग धै। यह राजा तार्किक चक्रवती अजिससेन-पाण्डितदेव वादिधरह का गृहस्थ-शिष्य था। उसने 10 में अपनी पूज्या धट्टलदेवी के साथ अपनी पितामही वीरलदेवी की स्मृति में पंचयसदि के सामने एक नवीन बसद्धि की नींव का पत्थर रखा था और उसके लिए लीनों भाइयों ने दानादि दिये थे। इस राजा की एक उपाधि 'जगदेकदानी थी। उसकी रानी चट्टलदेवी से उसके दो सन्तान थी,
192 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं