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________________ पहले राष्ट्रकूटों और तदनन्तर कल्याणी के चालुक्यों के प्रमुख सामन्तों में से थे। यह वंश प्रारम्भ से प्रायः अन्त तक जैनधर्म का मक्त अनुयायी रहा। दक्षिण भारत में जैनधर्म को शक्तिशाली बनाने में इस वंश का पर्याप्त योगदान था । जिनदत्तराय-- उत्तर मथुरा में राह नाम का राजा हुआ जी मथुरा-भुजंग (वीर) के नाम से प्रसिद्ध था। वह उसी उग्रवंश में उत्पन्न हुआ था जिसमें तीर्थंकर पार्श्व का जन्म हुआ था। उसके वंश में अनेक पीढ़ियों के उपरान्त सहकार नाम का दुष्ट राजा हुआ जो अन्ततः नरमांस भक्षी हो गया। उसकी धर्मात्मा पत्नी से जिनदत्तराय का जन्म हुआ था, जिसे अपने पिता के आचरण पर बड़ी ग्लानि हुई। अतएव अपनी माता की सहमति से जन्मभूमि का त्याग करके वह दक्षिण देश चला गया। वहाँ उसने सिंहरथ नामक असुर का वध करके जक्कियदेवी को प्रसन्न किया और उससे सिंहलाछन प्राप्त किया, अन्धकासुर का वध करके अन्धासुरनगर बसाया, कनकासुर का वध करके पुरा और कुन्द के दुर्ग से कर तथा करदूषण को भगाकर पद्मावतीदेवी को प्रसन्न किया। देवी वहीं एक लोक्किवृक्ष पर निवास करने लगी और उसने लोकियव्ये नाम धारण करके वीर जिनदत्तराय के लिए सुन्दर राजधानी बसा दी जो कैनकपुर अपरनाम पोम्बुर्च्चपुर (वर्तमान हुमच्च) के नाम से प्रसिद्ध हुई। हुमच्च की यह जैन यक्षी पद्मावती ही उसकी इष्टदेवी एवं कुलदेवी हुई। इस देवी की साधना से जिनदत्तराय को अद्भुत मन्त्रसिद्धि हुई थी। उसने सान्तलिगे - हजार प्रदेश पर अधिकार करके अपने राज्य की और वंश को, जिसका नाम उसने सान्तर रखा, स्थापना की। सम्भवतया सिद्धान्तकीर्ति नाम के जैनाचार्य उसके धर्मगुरु एवं राजगुरु थे। एक अभिलेख में जिनदत्तराय को कलस-राजाओं के कनक कुल में उत्पन्न हुआ बताया है। उसने सर्वप्रथम अपनी कुलदेवी लोक्कियन्वे (पावती) का मन्दिर हुमच्य में बनवाया और तदनन्तर अनेक जिनालय बनवाये थे और जिनाभिषेक के लिए कुम्बसेपुर गाँव दान में दिया था। उसी प्रेरणा से उसके बोम्मरस गौड आदि कई सामन्तों एवं सेड़ियों ने उक्त जिनालयों के लिए वार्षिक दान दिया था। जिनदत्त ने मथुराधीश्वर, पट्टि पोम्बुपुरवरेश्वर, महोग्रवंशललाम, पद्मावती - लब्ध-वर प्रसाद, वानर-ध्वज और जिनपादाराधक आदि जो विरुद धारण किये थे, वे सब उसकी वंश परम्परा में चलते रहे। जिनदत्त का समय लगभग 800 ई. है। तोलपुरुष - विक्रम सान्तर -- जिनदत्तराय का पुत्र या पौत्र था जो बड़ा प्रतापी, वीर और धर्मात्मा था। महीम्र-कुल-तिलक, निर्दोषसम्यग्दृष्टि, नव प्रताप सम्पन्न, न्याय करने में प्रसिद्ध, शत्रु राजाओं के शूरवीरों की पकड़ने में दक्ष, राम-जैसे धनुर्धारी इस नरेश ने अपने गुरु कोण्डकुन्दान्वय के मौनि सिद्धान्त भट्टारक के लिए पाषाण का एक जिनालय बनवाकर उसके लिए उक्त मुनि को 897 ई. में दान दिया था। इस नरेश की महारानी पालियक्के ने अपनी माता सामियब्बे की स्मृति में पाषाण पूर्व मध्यकालीन दक्षिण के उपराज्य एवं सामन्त वंश :: 180
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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