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जिस दिन भगवान महावीर का निर्माण हुआ उसी दिन अवन्ति में प्रद्यांत के पुत्र एवं उत्तराधिकारी पालक का राज्याभिषेक हुआ था। राजर्षि उदायन और महाराणी प्रभावती
भगवान महावीर के परम भक्त उपासक नरेशों में सिन्ध-साँवीर देश के शक्तिशाली एवं लोकप्रिय महाराजाधिराज उदावन का पर्याप्त लच्च स्थान है। उनके रास्वमें सोलह बड़े-बड़े जनपत थे, 369 नगर तथा उतनी ही खनिज पदार्थों की बड़ी-बड़ी खदानें थीं। इस छत्र भूकटधारी नरेश और अनेक छोटे भूपति, सामन्त सरदार, सेठ-साडूकार एवं सार्थवाद उनकी सेवा में रत रहते थे। राजधानी रोरुक नगर अपरमाम वीतभयपत्तन एक विशाल, सुन्दर एवं वैभवपूर्ण महानगर तथा भारत के पश्चिमी तट का महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह था। उसका नाम 'वीसभय' इसीलिए प्रसिष्ट्र हुआ कि महाराज दायन के उदार एवं न्याय-नीति-चूर्ण सुशासन में प्रजा सर्व प्रकार के भय से मुक्त ही सुख और शान्ति का उपभोग करती थी। इतने प्रतापी और महानु नरेश होते हुए भी महाराज उदायन अत्यन्त निरभिमानी, विनयशील, साधुसी और धानुरागी थे। उनकी महाराज्ञी प्रभावती उनके उपयुक्त ही सर्वगुण सम्पन्न आदर्श पत्नी थी। अभीचकमार नाम का इनके एक पुत्र था और केशिकमार नामक अपने भानजे से 'मी महाराज पुत्रवत् स्नेह करते थे। कहा जाता है कि महारानी की
काट धनिष्ठा से प्रमावित होकर महाराज रिसे धर्मरमिर बन गय..) कि.म्हाने रामधानी में एक अत्यन्त मनोरम जिमायतन का निमार्ण कराकर उसमें स्वयं भगवान महावीर की एक देहाकार सुवर्णमची प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी। यह भी कहा जाता है कि उन्होंने भगवान के कुमारकाल की एक चन्दनकाळ निर्मित प्रतिमा भी बनाया थी, जिसे बाद में “जीवन्त स्वामी कहा जाने लगा और जिसे एक आक्रमण में अवन्तिमरेश चण्डप्रद्योत छरों से अपहत करके ले गया था, तथा मालय देश की विदिशा नगरी में जिसका सर्वप्रथम ससमारोह रथ यात्रोत्सव किया गया था। महाराज उदाधन और महाराज्ञी प्रभावती की यह उत्कट इच्छा थी कि भगवान उनके राज्य
और नगर में भी पधारें । अस्तु, भगवान् का समवसरण यहाँ पहुंचा और नगर के वाहर मृगवान-उद्यान में प्रभु विराजे । समाचार पाते ही राजा और रानी पूरे परिवार, पार्षदों एवं प्रजाजन के साथ होत्फल हो भगवान के दर्शनार्थ पधारे और उन्होंने छलके उपरेशामृत का पान किया। भगवान के साक्षात् सम्पर्क से वह राजदम्पली इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने श्रावक के बारह व्रत धारण किये। धर्मध्यान तथा साधुओं की सेवा, बैचात्य आदि में उन्हें विशेष आनन्द आता था। निर्विचिकिल्ला अंग के पालन में महाराज उदायन आदर्श माने जाते हैं. बिना किसी प्रकार की मनोग्लानि को वह विपन्न एवं रोगग्रस्त साधुओं की ही नहीं, सामान्य दीन-दुःखी रोगियों की भी सहदयतापूर्वक सेवा-परिचर्या करते थे। शीघ्र ही संसार से विरक्त होकर उन्होंने मुनि
पहाथीर-युग :: 25