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जिनमन्दिर हरिगे और नेल्लवत्ति में बनवाये । लट्टकेरे और नेल्लयत्ति की बसदियों के लिए राजा वर्मदेव ने उसे दो भेरी, एक मण्डप, चामर तथा बड़े नगाड़े राज्य की
ओर से प्रदान किये और राजा को उसने जो भेंट दी थी उसके बदले राजा ने उसे जाट गाँवों की गावुण्ड-वृत्ति, बीस घोड़े, पाँच सौ दास तथा एनसवाड़ी प्रदान की। राजा का यह प्रिय पेगाहे-नोक्कय्य उसका महाप्रधान भी था। यह स्वामिभक्त, बुद्धिमान्, धैर्यवान, लौजभ्यतीर्थ, कलियुग-साधक, गंगनरेश के लिए हनुमान और जिनधरणों का आराधक था। उसके गुरु प्रभाचन्द्र सिद्धान्ति थे। ऐसा लगता है कि उपर्युक्त पांच या छह मन्दिरों में से एक उसने अपने पत्र जिनदास की स्मति (परोक्ष विनय) में बनवाया था। राज्य के सन्धि-विप्राडिक मन्त्री दामराज ने यह शासन लिखा था और सान्तोज पद्य ने उसे उत्कीर्ण किया था।
महारानी बाचलदेवी-आलहल्लि के 1112 ई. के शिलालेख में मंगनरेश धर्मदेव-मुजबलगांग-पम्माडिदेव (गेयरस) के नाम के साथ प्राचीन गंगराजाओं की सभी परम्परागत उपाधियों का प्रयोग हुआ है और लिखा है कि उसकी पट्टानी गंगमहादेवी ने, जो परिवार-सुरभि और अन्तःपुर-मुख्यमण्डन थी, अपने छोटे भाई पट्टिगदेव के लिए मंगवा का मुकुट धार किया था सम्भवया यह बदिव के साथ उसका विवाह कराने में मुख्य कारण रहा होगा। समस्त सनियों और राजाओं में यह सर्वाधिक प्रतिष्ठित थी। उसके चारों पुत्र भी महान् वीर योद्धा थे। उसकी एक सपत्नी, महामण्डलेश्वर बर्मदेव की दूसरी रानी, थारलदेवी थी। जब शेष परिवार मालि-एक हजार प्रान्त में अपने निवास स्थान एडेहल्लि में 1112 ई. में सुखपूर्वक रह रहा था, रानी पेगडे-बाचलदेवी सन्निकरे में निवास कर रही थी। लोक में जैसे समुद्र-परिवेष्टित गंगाडि देश प्रसिद्ध है और उसमें भी मण्डलिनाड प्रान्त, उसी प्रकार मण्डलिनाड की नाक यह बन्निकरे नगर था। इस रानी में अपने बड़े भाई 'जिनपदाम्बुज-भंग' साहबलि से परामर्श करके उस नगर में पाश्वनाथ भगवान का एक अति सुन्दर जिनालय बनवाया और अपने पति यम्भदेद, गंगमहादेवी, कुमार मंगरस, पारसिंगदेष, गोग्गिदेव, कलियंगदेय, समस्त मन्त्रियों और नाप्रभुओं की उपस्थिति में उक्त जिनालय की प्रतिष्ठा करके उसके लिए राजकर से मुक्त करके कुछ भूमि, एक बाश, दो कोल्हू और बन्निकरे एवं वूदगेरे दोनों नगरों की चुंगी की आय का दान दिया था। अन्य लोगों ने भी दान दिया। दान देशीमण के शुमचन्द्र मुनि को दिया गया था। इस अभिलेख में सनी बाचलदेवी की प्रभूत प्रशंसा की गयी है। उसे दानचिन्तामणि, दानकल्पलता, पतिप्रिया, पतिपरायणा, यशस्विनी, संगीत एवं नृत्य विद्या में निपुण, चतुर-विद्या-विनोद, कस्तूरी-कामोद, जिनमन्धोदकपवित्रीकृतबिनौलनील कुन्तल, निखिल-कुल-पालिका, सौभाग्यशची, परोपकारकमलाकरचक्रवाक, जिनशासन साम्राज्य-यश-पताका इत्यादि कहा गया है। उसने अपने पति राजा को भी 'पात्र-जग-दले' उपाधि दी थी।
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186 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ