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________________ गाडीक अर्थ firmne उत्तराधिकारी वीरबल्लाल तृतीय इस वंश का अन्तिम नरेश था । होयसलों की राज्यशक्ति पतनोन्मुख थी, जिसे अलाउद्दीन खिलजी और मुहम्मद तुगलक के बर्बर आक्रमण एवं भयंकर लूटमार ने धराशायी कर दिया। तथापि यह वीरबल्लाल अन्त तक अपने स्वदेश की स्वतन्त्रता और राज्य की रक्षा के लिए वीरतापूर्वक जूझता रहा। धर्म की ओर ध्यान देने का उसे अवकाश ही नहीं था । स्वराज्य की रक्षा के प्रयत्न में उसने वीरगति पायी । यद्यपि अपने वंश एवं राज्य की रक्षा करने में वह सफल नहीं रहा तथापि मरने के पूर्व ऐसी व्यवस्था कर गया, जिसके फलस्वरूप उसकी मृत्यु के तीन वर्ष के भीतर ही विजयनगर साम्राज्य का उसके द्वारा बोया हुआ बीज अंकुरित हो उठा और शीघ्र ही लहलहाने लगा। इस वीरबल्लाल के शासनकाल में भी जैनधर्म ही कर्णाटक देश का सर्वोपरि एवं प्रधान धर्म था और यह राजा भी उसका पोषक और संरक्षक यथासम्भव रहा। जब 1300 ई. में राजधानी द्वारसमुद्र में महामुनि रामचन्द्रमलधारिदेव ने समाधिमरण किया तो समस्त जनता ने उत्सव मनाया और उक्त जैन-गुरु की मूर्तियाँ बनवाकर स्थापित कीं। उसी वर्ष tata नामक जैन विद्वान् ने राज्याश्रय में प्रकृति-विज्ञान पर 'रहसूत्र' या 'रहमाला' नाम का ग्रन्थ रचा। राजा के महाप्रधान सर्वाधिकारी केतेय दण्डनायक ने 1882 ई. में एडेनाड की कोलुगण बसदि नामक जिनालय को दो ग्राम प्रदान किये थे। सेनापति सातण सम्यक्त्व-चूडामणि आदि विरूदधारी होयसलनरेश सोमेश्वर के सैन्याधिनाथ (प्रधान सेनापति) शान्त-दण्डेश विजय मन्त्री के वंश में उत्पन्न हुए थे। यह सेनानाथ - शिरोमणि बन्दिजन - चिन्तामणि, सुजन चनज-वन- पतंगे थे। उनका अनुज काम श्रीजिनेन्द्र के चरण-कमलों का भ्रमर यशस्वी राजपुरुष था । उसकी पत्नी नाकय्य की पुत्री दुर्गाम्बिका थी और सोम एवं राम नाम के दो पुत्र I यह सोम या सोवरस भी करण गणाग्रणी अर्थात् राज्य के प्रमुख लेखाधिकारी थे । यह पुरुषरत्न असल गुणगणधाम थे। सोवरस की धर्मात्मा पत्नी से उत्पन्न उनके पुत्र यह सात या सातपण थे। सातण्ण की पत्नी बनिता गुण-रत्न बोघवे थी। यह परिवार देशीगण पुस्तकगच्छ के आचार्य भानुकीर्ति के शिष्य माघनन्दि-व्रती का गृहस्थ-शिष्य था। सातरण को सातिशय-चरित-भरित, भूतभवद्भावि भव्यजन-संसेव्य, अमलगुणसम्भूत, विद्यादि-गुण-रूप-निलय, जिनपदपयोरुहाकरहंस इत्यादि कहा गया है। इस धर्मात्मा सातण्ण ने अपने इष्ट गोत्र- मित्र-पुत्र कलत्र आदि की सुखसम्भूति के निमित्त 1248 ई. में मनलकेने नामक स्थान में श्री शान्तिनाथ भगवान् का मन्दिर पुनः निर्माण कराकर उस पर स्वर्णकलश चढ़ाया था, प्रतिष्ठा करायी थी और मन्दिर में जिनार्धन एवं आहारदान के हेतु भूमि का दान स्वगुरु माघनन्दी - व्रती को दिया था । नलप्रभु देविसेहि होयसल रामनाथ के समय में प्रसिद्ध राज्यश्रेष्ठि था । जब 1276 ई. में उक्त राजा ने कोगलि में चेन्न पार्श्व समनाथ-बसदि नामक जिनालय बनवाया था तो उसके लिए इस सेठ ने प्रभूत भूमिदान दिया था । होयसल राजवंश : 188 www www.
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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