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मारिसेष्टि, कामिसेष्टि, भरतिसेहि एवं राजसेष्टि-राजधानी द्वारसमुद्र के इन चार प्रधान जैन व्यापारियों एवं सेठों ने स्थानीय नागरिकों तथा समस्त विदेशी व्यापारियों के सहयोग से एक अत्यन्त सुन्दर एवं विशाल जिलार भगवान अभिनव-शान्तिनाथदेव के नाम से बनाया था, जो नगर का प्रमुख जिनभवन होने से नगर-जिनालय कहलाया। उक्त राज्यसेठों की प्रार्थना पर प्रताप-चक्रवर्ती वीरथल्लालदेव अपने कुमार (युथराज नरसिंह), समस्त प्रभु-गावुण्डों एवं नाइ-गावुण्टों (सामन्त-सरदारों) के साथ उक्त जिनालय के दर्शन के लिए गया तो वहाँ भगवान् जिनेन्द्र के अष्टविध-पूजोत्सव एवं मुनियों को दिये जानेवाले आहारदान को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और समस्त सामन्तों की प्रार्थना पर उक्त जिनालय के लिए उसने मुनि बजनन्दिसिद्धान्तिदेव को दो ग्राम प्रदान किये । वह बजनन्दि द्रमिलसंधी आचार्य श्रीपाल-त्रैविध के शिष्य थे। उपर्युक्त चारों सेठ भी उन्हीं श्रीपाल-विछ के गृहस्थ-शिष्य थे।
आदिगदुण्ड-महाप्रधान आदिगण्ड कालगण्ड का पौत्र, होन्मगाण्ड और जक्के-गयुण्डि का पुत्र तथा मावुष्टि, मार, माच और नाक गवण्डों का पिता था। वह चीरबल्लाल द्वितीय के दरदेश बोपदेव का आश्रित था। यह परिवार द्रमिलसंधी शासुपूज्य मुनि के शिष्य पेरुमलदेव का गृहस्थ-शिष्य था। उक्त स्वगुरु के लिए आदिगवुण्ड और उसके पुत्रों में एक विशाल जिनालय बनवाया था और उसके लिए 1248 ई. में भूमिदान दिया था जिसके देने में कोण्डलि के 40 जैन परिवारों के साथ समस्त ब्राह्मण भी सम्मिलित थे।
1220 ई. में वीरबल्लाल की मृत्यु के उपरान्त होयसल वंश की अवनति प्रारम्भ हो गयी। उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी नरसिंह द्वितीय का राज्य अल्पकालीन रहा। सदनन्तर नरसिंह के पुत्र सोमेश्वर ने 1245 ई. तक राग्य किया। उसकी दो रानियाँ थीं, जिनके पुलों में परस्पर राज्य के लिए संघर्ष चला। अन्ततः राज्य के दो टुकड़े हो गये--एक पर नरसिंह तृतीय (1254-391 ई.) तथा दूसरे (दक्षिणी भाग) पर रामनाथ {1254-1297 ई.) पृथक-पृथक् शासक रहे । ये दोनों ही राजे जिनधर्म-भक्त रहे प्रतीत होते हैं।
सोमेश्वर होयसल (1225-1245 ई.)-की परम्परागत उपाधि सम्यक्त्वष्टामणि उसका जैन होना सूचित करती है। उसकी अनुमति से उसके मन्त्री रामदेव नायक द्वास एक व्यवस्थापत्र तैयार किया गया था, जिसके अनुसार श्रवणबेलगोल के भीतर राजकरों आदि पर सम्पूर्ण अधिकार कटौं के जैनाचार्य का था । यहाँ व्यापारी भी प्रायः सब जैन ही थे। उनकी भी उक्त शासन में सहमति थी।
होयसल नरसिंह तृतीय-बिज्जलरानी से उत्पन्न सोमेश्वर का पुत्र था और प्राचीन कार्याटक साम्राज्य के पैतृक भाग तथा राजधानी द्वारतमुद्र पर अधिकृत सुआ था । जब 4254 ई. में वह राजधानी द्वारसमुद्र के सुप्रसिद्ध विजय-पार्वदेव-जिनालय
होयसल राजवंश ::381