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जिनालय बनवाया, जो अब ध्वस्त है। उस ध्वस्त बसदि के 1174 ई. के लगभग के स्तम्भलेख के अनुसार 'अनुपम पुण्यभाजन, जिनेन्द्र पदाब्जविलीन चित्त, पावन-सुरित्र-महासति' हर्यले ने अपना अन्त समय निकट आने पर अपने प्रिय सुपुत्र बूबयनायक को अपने पास बुलाकर कहा, "वत्स! स्वप्न में भी मेरा ध्यान न करना, अपितु धर्म में चित्त लगाना । उसी का सदैव चिन्तयन करना और सदैव धर्मकार्य करते रहना । ऐसा करने से ही नरेन्द्र, सुरेन्द्र, फणीन्द्र आदि के राज्य-वैभव और सुख तथा अन्त में मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति होगी। ऐसा निश्चय करके हे सत्यनिधि बूबयनायक, तू धर्म और दान में चित्त लगा। पुण्य की अनुमोदना से भी असीम पुण्य प्राप्त होता है। अतएव हे धर्मधुरीण युविदेव, अपने और मेरे पुण्य के हेतु तू जिनमन्दिरों का निर्माण कराना : मेरे देव (स्वर्गीय पति) के मित्रों का सदैव आदर करना और अपने छोटे (बालक) चाचा का सदैव ध्यान रखना पुत्र को यह अन्तिम उपदेश देने के पश्चात धर्मात्मा रानी ने जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक किया और इस दृढ़ विश्वास के साथ कि भगवान का पवित्र गन्धोदक उसके समस्त पापों को धो देया, इसे भक्तिपूर्वक मस्तक पर चढ़ाया। तदनन्तर भगवान् जिनेन्द्रचन्द्र के चरण के सान्निध्य में, सदैव अपने स्मरण में रहनेवाले पंच-मंगल महायद (पंच-नमस्कार-मन्त्र) का उच्य स्वर से उच्चारण करते हुए और जिस मोहपाश से वह अब तक घिरी हुई. अखें छिम्न-
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स विर में विधिपूर्वक समाधिमरण किया और परिणामस्वरूप 'इन्द्रलोक में प्रवेश किया। सुरेन्द्रलोक की देवियों ने वहाँ इस महानुभाव महिलारत्न का गीतन्याय-नृत्य आदि से महोत्सवपूर्वक भव्य स्वागत किया। इस सामन्त-पल्ली और सामन्त-जननी महासती रानी हर्यलेदेवी का उक्त सुमरण मृत्यु पर विजय प्राप्त करनेवाले धर्मात्माजनों के लिए आदर्श है। यह महासती हर्यले, हरियलदेवी या हरिहरदेवी कौराष्ट्रकुन्दान्वय के घान्द्रायणदेव की गृहस्थ-शिष्या थी।
ईचण और सोवलदेवी-बीर बल्लाल का मन्त्री ईचण और उसकी रूपवती एवं गुणवती भायां सोवलदेवी, दोनों परम जिन-भक्त थे। इस दम्पती ने गोग नामक स्थान में वीरभद्र नामक सुन्दर जिनालय निर्माण कराया था। पैसा जिनालय पर बेलगवत्तिनाड में दूसरा नहीं था। इस सुन्दर जिनालय के निर्माण द्वारा उस प्रदेश्व को ईचण मन्त्री और सोवलदेवी ने मानो दुसरा कोप्पण ही बना दिया था। यह मन्दिर 1205 ई. के लगभग बना था। इस सोबलदेवी ने 1207 ई. में इसी मन्दिर के लिए अनेक प्रकार के धान्य का तथा अन्य दान पादप्रक्षालनपूर्वक स्वगुरु थासुपूज्यदेव को दिये थे। उसने इस अवसर पर एक कन्यादान भी किया था-अथात् एक निधन कन्या का विवाह स्वयं सम्पन्न कराया था। विरुपय्य नामक व्यक्ति ने भी मन्दिर के लिए भूमिदान दिया था। नागौड को उक्त पुण्य की रक्षा का भार सौंपा गया था। अपने अनुज की स्मृति में 1208 ई. में उक्त विख्यात सन्धिविनाहेक-मन्त्री ईचण्ण
बाल राजवंश :: 178