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रामदेव विभु - गंगवार के मोनेशनकडे का शासक था, जहाँ उसने शान्तिनाथ भगवान् का एक विशाल जिनालय निर्माण कराके उसके लिए स्वगुरु मेघवन्द्र को जो देशीगण पुस्तकगच्छ के नयकीर्ति के प्रशिष्य और बालचन्द्र अध्यात्मी के शिष्य थे, बनवसे के मोत्तदनायक तथा कई मण्डप्रभुओं से भूमिदान दिलाया था। जिनालय कनकाचलकूट पर बनाया था। दान 180 ई. में श्री रामहेत विभु को श्रेष्ठगुणनिधान, बुध-निधि और सत्य-युधिष्ठिर कहा गया है।
नरसिंह सचिवाधीश - महासेनापति हुल्लराज की पुण्यात्मा पत्नी पद्मलदेवी से उत्पन्न उसका जिनभक्त धर्मात्मा सुपुत्र था। मुनि नयकीर्ति का वह गृहस्थ-शिष्य था। गुणवान्, पराक्रमी, युद्धवीर और गुरुभक्त था । उसने 1178 ई. में बेक्कग्राम में एक जिनालय बनवाकर उसके लिए वही ग्राम राजा से स्वगुरु को दान में दिलवाया
था ।
हरियण्ण हेगड़े महाप्रधान सर्वाधिकारी-हिरिय भण्डारी हुल्लराज का साला था और राजा का अश्वाध्यक्ष था । श्रीपाल योगी के शिष्य वादिराज की प्रेरणा से उक्त श्रीपाल के स्वर्गस्थ होने पर उनको परोक्ष-विनय के रूप में परवादिमल्ल - जिनालय कुम्बेनहल्लि ग्राम में 1200 ई. के लगभग निर्माण हुआ। यह जिनालय उक्त हरण के एक सम्बन्धी, कण्डच्चनायक की भार्या राजवेनायकिति के पुत्र कुन्दाह eras नामक अधिकारी ने मयचक्रदेव की आज्ञा से बनवाया था और अश्वाध्यक्ष हरियण्णदेव ने उसमें जिनेन्द्रदेव की प्रतिष्ठा करायी थी ।
कम्मरमाचय्य - राज्य का महाप्रधान सर्वाधिकारी तन्त्राधिष्ठायक था। उसने और उसके श्वसुर बल्लव्य ने कुम्बेनहल्लि के परवादिमल्ल जिनालय के लिए जो दान दिये थे, उनमें नित्य दीप जलाने के लिए तेल का टैक्स भी सम्मिलित था। यादिराज ने उपर्युक्त अवसर पर (1200 ई. में) प्राप्त समस्त दान अपने धर्मा शान्तिसिंह आदि को सौंप दिये थे।
अमृत दण्डनायक - होयसल बल्लाल द्वितीय का यह महाप्रधान, सर्वाधिकारी, पापसात (आभूषणाध्यक्ष) एवं भेरुण्डन- मोत्त-दिष्ठायक (उपाधिधारियों का अध्यक्ष ) दण्डनायक अमितव्य (अमृतचमूनाथ) चेट्टिसेड और जकव्वे का पौत्र तथा हिरियमसेट्रि और सुगब्बे का पुत्र था। कल्ल, मसण और बसव उसके अनुज थे। लोक्कुगुण्डी उसका जन्मस्थान था, जहाँ उसने एक भव्य जिनालय एवं विशाल सरोवर बनवाया तथा एक सत्र, अग्रहार और प्रपा स्थापित किये थे। मन्दिर का नाम एक्कोटि-जिनालय था। अमृत दण्डाधीश के गुरु नयकीर्तिपण्डित थे । यद्यपि वह चतुर्थ वर्ण अर्थात् शूद्र जाति में जन्मा था, उसे कविकुलज, धर्मिष्ठ, शुभमति, पुण्याधिक, सौम्यरम्याकृति और मन्त्रिचूडामणि कहा गया है। उसके तीनों भाई भी दण्डनायक आदि पटों पर आसीन थे। उक्त जिनालय के लिए अमृत दण्डाधिप ने 1203 ई. में अपने भाइयों के साथ मिलकर प्रदेश के समस्त नायकों, नागरिकों एवं कृषकों की उपस्थिति में
होयसल राजवंश 197