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(नरसिंह द्वितीय) का जन्म हुआ तो उसकी खुशों में इन दोनों भाइयों ने देशीगण के देवचन्द्रपण्डित को अनेक बसदियों के लिए प्रभूत दान दिचे थे। इन्होंने राजा से अपने कुल की परम्परागत सिन्दगरे आदि की भूमियाँ प्राप्त करके पुनः दान कर दी थीं। इन भरत (मतिमय्य) दण्डनायक की धर्मात्मा साध्वी पनी जरुञ्चे या जक्कतो 1203 ई. में समाधिमरणपूर्वक देह त्याग किया था। इस महासती के गुरु अनन्तकौति मुनि थे, माता लच्चब्बे और पिता मण्डनमुह थे। समाधिलेख में उसके शील, संयम, तप, जिनभक्ति आदि की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी है।
चिराज-चौर बल्लात का सन्धिविग्रहिक-मन्त्री, श्रीकरणद एवं दण्डाधिप बूचिसज वीर योद्धा, कुशल राजनीतिज्ञ एवं प्रशासक और धर्मात्मा होने के साथ-साथ चतुर्वेिध-पाण्डित्य का धनी था। वह संस्कृत और कन्नड़ दोनों ही भाषाओं का सुविज्ञ एवं सुका था और कविता विशारद' कहलाता था। उसकी पत्नी शान्तले भी विदुषी
और धर्मिष्ट महिला थी। वः भरत दाडेश की पुत्री और दण्डाधिप मरियाने की भतीजी थी। महाप्रधान बूचिराज ने वीर बल्लाल के राज्याभिषेकोत्सव के उपलक्ष्य में 1173 ई. में सिगेनाइ के मरिकली नगर में त्रिकूट-जिनालय नामक भव्य मन्दिर
उसके लिए स्वगरू वासपूज्य-सिद्धान्ति को पाद-प्रक्षालनपूर्वक प्रामादि दान दिये थे। बह नरसिंह प्रथम के समय से ही राज्य सधः । था, 1165 ई. के शिलालेख में उल्लिखित श्रीकरणद हेगडे चिमय्य ही उन्नति करके वीर बल्लाल के समय में मन्त्रीश्वर बूचिराज हो गया था। बासुपूज्य-सिद्धान्ति से पूर्व उसके गुरु देवकीर्ति रहे प्रतीत होते हैं।
महादेव दण्डनायक-राज्यपदाधिकारियों के प्रतिष्ठित कुप में उत्पन्न हुआ था । उसके पिता सोमधमूष और माता सोबलदेवी थी। राम और केशव उसके अनुज थे। उसकी सुशीला गर्व धर्मपरायणा पत्नी लोकलदेवी राज्य के एक प्रान्तीय शासक मसण सामन्त की पौत्री और सामन्त कीर्तिगावुण्ड की पुत्री थी। महादेव और लोकलदेवी काणूरगण के कुलभूषण के शिष्य सकलचन्द्र भट्टारक के गृहस्थ-शिष्य थे। इस महाप्रधान महादेव देण्इनायक ने 1187 ई. में एरग-जिनालय का निर्माण कराके उसमें शान्ति-जिनेश की प्रतिमा प्रतिष्ठित करायी और स्वगुरु को भेरुण्ड' घड से नापकर तीन पत्ता शालि-क्षेत्र, दो कोहू और एक दुकान समर्पित की थी। उस अवसर पर वीर बल्लाल का एक प्रमुख महामण्डलेश्वर उद्धरे का शासक एक्कलरस भी उपस्थित था और स्वयं उसने, उसके पट्टणसामि (राज्यसेठ), तैलव्यापारियों एवं अनेक नागरिकों ने भी दान दिये थे। उस समय महादेव उक्त महामण्डलेश्वर का ही महाप्रधान दण्डनायक था। उसके श्वसुर कीलिंगावुण्ड के आधित मल्लिसेट्टि और नेमिसेष्टि ने जब 1208 ई. में शान्तिनाथ जिनालय बनवाकर उसकी प्रतिष्ठा की तो उस अवसर पर अपने श्वसुर और सालों के साथ महादेव दण्डनायक भी उपस्थित था और उसने भी दानादि में योग दिया था।
} 76 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं