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महापराक्रमी, भारी विजेता और स्थाद्वादमत जैनधर्म) का पोषक एवं पक्षपाती था। उसने अपने वंश एवं राज्य को पूर्णतया स्वान्त्र कर लिया और उसमें शान्ति एवं सुख-समृद्धि की उल्लेखनीय वृद्धि की। योवराज्यकाल में ही वह पिता के राज्यकार्य में सक्रिय सहयोग देता था, जैसा कि 116 ई. के बन्दर शिलालेख से प्रकट है। ऐसा लगता है कि उस समय वास्तविक राजा वहीं था। उसी से यह भी पता चलता है कि इस नरेश के गुरु द्रमिलनाघी श्रीपाल-विध के शिष्य वासुपूज्य-व्रती थे। सन् 1179 ई. की श्रावण शुक्ल एकादशी रविवार के दिन धीर बालाल का पट्टबन्धोत्सव
राज्याभिषेक हुआ था और उस उपलक्ष्य में उसने प्रभूत दान दिये थे। तभी महासन्धिविग्रहिक मन्त्री बूचिराज ने त्रिकूट-जिनालय बनवाकर उसके लिए राजा से मरिकलि नाम का ग्राम प्राप्त करके उक्त वासुपूज्य मुनि को भेंट किया था। उसके पिता के समय से चले आये महासेनापति हुल्लराज द्वारा श्रवणबेलगोल में निमापित चतुर्विशति-असदि के लिए हुल्न के निवेदन पर राजा ने 1174-75 ई. में दो ग्राम भेंट किये था उसी स्थान की पारमा यसदिली झन सिमा क्षा और अपने पिता नरसिंह प्रथम द्वारा दान किये गये तीन ग्रामों के दान की पुष्टि की थी । देवीसेट्टि नामक धनी सेल में 1176 ई. में राजधानी में वीर बलाल-जिनालय नाम का एक सुन्दर मन्दिा राज्याश्रय से निर्माण कराया था और उसके लिए स्वगुरु घालचन्द्र मुनि को दान दिया था। स्वयं राजा ने भी उक्त मन्दिर के लिए कई ग्राम प्रदान किये। सन् ।192 ई. में राजधानी के चार प्रमुख सेठों ने समस्त नागरिकों तथा अन्य नगरों के व्यापारियों के सहयोग से नगर-जिनालय नाम का विशाल एवं मनोरम जिनमन्दिर बनवाया, जिसका अपरनाम अभिनय-शान्तिदेव भी था। राज्यश्रेष्टि के साथ प्रलापचक्रवर्ती धीर बालालदेव स्वयं उक्त जिनालय में शैवदर्शन के लिए गया, भगवान् की अष्टोपचारी पूजा देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसके लिए गुरु वजनन्धि-सिद्धान्ति को कई ग्राम दान में दिये। सदैव की भाँति इस समय भी होयसानों की राजधानी द्वारसमुद्र जैनधर्म का केन्द्र और जैनों (भव्यों) की गढ़ थी। वीर बलाल ने स्वयं अनेक घार जैनतीर्थों की यात्रा की, जिनमन्दिरों के दर्शन किये और बसदियों एवं जैनगुरुओं को दानादि देकर सम्मागिल किया था। जैनाचार्य श्रीपाल-विद्य और उनके शिष्य इस काल में होयसलों के राजगुरु थे। राज्य के अनेक मन्त्री, सेनापति, सामन्त, प्रमुख राजपुरूष एवं श्रेष्ठ जैनधर्म के अनुयायी थे। हुल्ल, नागदेव, रेधिमय्य, चिराज, बाहुबलि, नरसिंह आदि ये जैन युद्धवीर, कुशल राजनीतिज्ञ एवं दक्ष प्रशासक ही वीर बल्लाल के राज्य के प्रधान स्तम्भ थे; उसकी सफलताओं और समृद्धि के आधार थे और उसके विस्तृत राज्य के समर्थ संरक्षक थे। कलारियों का सर्वप्रधान द"झाधिनाथ रेधिमय उनके अन्तिम नरेश की वीर बल्लाल के हाथों पराजय होने और फलस्वरूप इस वंश का पूर्ण पतन हो जाने पर, साथ ही इस होयसल नरेश एवं उसकी प्रजा की मत्रमधर्म में निष्ठा जानकर उसकी
DocumeRAIREXXX2004
174 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन दुरुष और महिलाएँ