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________________ 15.20A ही साध वह अत्यन्त विचक्षण राजनीतिज्ञ एवं बीर योद्धा था। विष्णुवर्धन होयतल के समय में ही उसकी नियुक्ति हो गयी थी। नरसिंह के पूरे शासनकाल में वह राजा का दाहिना हाथ रहा और उनके उत्तराधिकारी बल्लाल द्वितीय के समय में भी अपने पर्दी पर बना रहा । इस प्रकार इस स्वामिभक्त बीर मन्त्रिराज ने सीन होयसल नरेशों की निष्ठापूर्वक सेवा की धी। इस धर्मात्मा राजपुरुष ने अनेक नवीन जिनमन्दिर बनवाये और अनेक राहों का जापटा करायासतिणमा में मानांधिक उल्लेखनीय श्रवणबेलगोल का चतुर्यिशतिजिनालय है। यह विशाल एवं अत्यन्त मनोहर जिनभवन 26th फुट लम्बा और 78 फुट चौड़ा है जो गर्भगृह, सुकनासा, मुखमण्डप, उपभवन, अलिन्द, गोपुर आदि से समन्वित है। गर्भगृह में सुन्दर चित्रमय वेदी पर चौबीसों तीर्थकरों की तीन-तीन फुट उत्तुंग प्रतिमाएँ विराजमान हैं। गर्भगृह के तीन द्वार हैं, जिनके पाश्र्थों में पाषाण की सुन्दर जालियाँ बनी हैं। सुकमासा में पदमावती और ब्रह्मयक्ष की मूर्तियाँ स्थापित हैं। नवरंग के चार स्तम्भों के मध्य दस फुट का वर्गाकार पाषाण लगा है। नवरंगद्वार के प्रस्तरांकन अत्यन्त मनोरम हैं, जिनमें पशु-पक्षी, लता-वृक्ष, मानवाकृतियों आदि उत्कीर्ण हैं। मुख्य भवन के पहुँओर बरामदा, तदनन्तर पाषानिर्मित परकोटा और उसके मुख्य द्वार के सम्मुख एक सुन्दर प्रस्तरमयी मानस्तम्भ है। इस देवालय में चौबीसी स्थापित होने से यह चतुर्विंशति-जिनालय कहलाता है। हिरियभण्डारी हुल्लराजद्वारा निषित होने से भण्डारि-असदि और महाराज नरसिंह ने इसके दर्शन करके प्रसन्न हो उसका नाम भव्य-चूडामणि-जिनमन्दिर रखा था। गोम्मटपुर के अलंकार इस जिनालय का निर्माण होकर 1159 ई. में उसकी प्रतिष्ठा हुई, और दानादि दिये गये। महामपदलाचार्य नवकीर्ति-सिद्धान्त चक्रवर्ती को इस जिनालय का आचार्य पद सौंपा गया 1 स्वयं महाराज नरसिंह ने अपनी दिग्विजय यात्रा पर गमन करने के पूर्व श्रवणबेलगोल के मोम्मटेश, पार्श्वनाथ और उक्त चतुर्विंशति तीर्थकरों की दर्शन-यन्दना की और अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक लक्त जिनालयों के लिए सवणेरु ग्राम समर्पित किया। सन् 1175 ई. के लगभग सेनापति हुल्ल ने तत्कालीन चरेश बल्लाल द्वितीय से पुनः यह ग्राम तथा अन्य दो ग्राम प्राप्त करके गोम्मटेश, पार्श्वनाथ और धतुर्विंशति-जिनालय के लिए समर्पित किये थे। श्रणवेलगोल के अतिरिक्त कोप्पण, बंकापुर और केल्लंगेरे प्रभृति अन्य तीधों को भी हुल्लराज ने उम्नत किया। कोप्पण के निवासियों से स्वर्ण के बदले बहुत-सी भूमि प्राप्त करके उसने उक्त तीर्थ के चतुर्विंशति जिनेन्द्रों को समर्पित कर दी। यंकापुर के दो प्राचीन महत्वपूर्ण किन्तु प्रायः पूर्णतया ध्वस्त जिनालयों का जीर्णोद्धार करके उनका अत्यन्त सुन्दर नदीनीकरण कर दिया-उनमें से एक तो इतना उत्तुंग बनाया कि कैलास पर्वत से उसकी उपमा दी जाती थी। चिरकाल से विस्मृत एवं लुप्त आदि तीर्थ केल्यैगेरे में एक अत्यन्त सुन्दर उतुंग जिनालय तथा तीर्थकर भगवान के पाँच कल्याणकों के स्मारक रूप पाँच अन्य महान. होयसल राजवंश :: 169
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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