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________________ Parisodeshionline मादिराज-हग्गडे पादथ्य, माधव या माडिराज का पिता योगमय्य था और पत्नी उमयब्बे थी। वह विष्णुवर्धन का श्रीकरणद (महाकोप-लेखाधिकारो) एवं मन्त्री था और अपनी वक्तृता से राजसमा को प्रभावित रखता था। श्रीपाल विद्य का वह शिष्य था। खंगमट्टी नदी के किनारे उसने श्रीकरण-जिनालय बनवाकर 1145 ई. में उसके लिए भूमिदान दिया था। नोलम्बिसेष्टि-विष्णुवर्धन के समय में पोयसल-सेट्टि एवं द्वारसमुद्र-पट्टयसामि, अर्थात् राज्यसेठ एवं मगरसेल और शुभचन्द्र-सिद्धान्ति के गृहस्थ शिष्य थे। उनकी धर्मात्मा, दानशीला एवं जिनभूजामक्त सेठानी देमिकब्बे ने निकृट-जिनालय, सरोवर, दानशाला आदि बनवाकर 125 ई. के लगभग बसदि के लिए प्रभूत दान दिये थे। अन्य सेठों से भी दिलवाये। मूलनायक पाश्वनाथ थे। दान दिया गया मुख्य ग्राम अईनहल्लि था। मल्लिसेट्टि और चट्टिकब्बे-दम्मिसेष्टि के पुत्र मल्लिसेट्टि को चलदङ्करावहोयसल सेष्टि की उपाधि और अश्यावले (एलोरा) के शासक का पद मिला था। उसकी जिनधर्म-परायणा, दानशीला भार्या चट्टिकब्बे तुरबम्मरस और सुगब्बे की युबी थी। उसका पुत्र बूचणं, था। उन माता एवं पुत्र ने 1197 ई. के लगभग उक्त मल्लिसेट्टि की स्मृति में निषधा बनवायी थी। नरसिंह प्रथम होयसल (1141-73 ई.)-विष्णुवर्धन की रानी लक्ष्मीदेवी से उत्पन्न उसका पुत्र विजय-नरसिंहदेव उसका उत्तराधिकारी हुआ। जन्म समय ही उसका यौवराज्याभिषेक कर दिया गया था, और अपने पिता की मृत्यु के समय वह केवल 8 वर्ष का बालक मात्र था। चय प्राप्त करने पर मी बह आमोद-प्रमोद में अधिक व्यस्त रहा । उसके समय में साम्राज्य की महत्ता और प्रतिष्ठा की रक्षा उसके प्रतापी पिता के नाम के प्रभाव से तथा उसके स्वामिभक्त, सुयोग्य एवं धीर जैन सेनापतियों और मन्त्रियों की तत्परता के कारण ही हुई। पूर्वोक्त मरियाने, भरत आदि दण्डनायकों के अतिरिक्त देवराज, हुल्ल, पार्श्व, शान्तियण और ईश्वर जैसे अन्य कई सुयोग्य, कुशल, वीर पचं स्वामिभक्त जैन दण्डनायक तथा मन्त्री उले प्राप्त हो गये थे। राजा स्वयं जैन था और देव-गुरु का आदर करता था। अपने उक्त जैनवीरों के धर्म कार्यों में वह उत्साह के साथ योग देता था। उनके निमपित जिनमन्दिरों में दर्शनार्थ जाता था, उनके लिए दान देता था और उनके नामकरण आदि में भी रुचि लेता था। उसकी "जमदेकमल्ल' उपाधि बाट सूचित करती है कि नाम के लिए ही सही, सोयसल नरेश अभी तक चालुक्य सम्राटों का आधिपत्य स्वीकार करते थे। मारि और गोविन्द सेष्टि-विष्णुवर्धन के कृपापात्र महाम्रभु पेमडि के ज्येष्ठ पुत्र भीमय्य की भार्या देवलब्बे से दो पुत्र, मसणिसेट्रि और मारिसेष्टि हुए। मारि ने द्वारसमुद्र में एक्कोटि-जिनालय नाम का अति उतुंग मन्दिर बनवाया था। उसके पुत्र गोविन्द ने मुगुलि में मोविन्द-जिनालय बनवाया था। वह पूरा परिवार परम धार्मिक होयसल राजवंश :: 157
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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