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विष्णु दण्डाधिनाथ- अपरनाम इम्पडि बिदिमय्य महाराज विष्णुवर्धन होयसल का अत्यन्त स्नेहपात्र बालवीर दण्डनायक था। काश्यपगोत्री उदयादित्य की पत्नी शान्तियाक से चिन्नराज गुत्पन्न हुआ था जो एरेयंग होयसल का राजमन्त्री एवं दायाधीश था। उसकी पत्नी चन्दले से उदयण और बिहिमय्य अपरनाम विष्ण, ये दो पुत्र उत्पन्न हुए थे। विष्णु छोटा पुत्र था जो नव चन्द्रमा की भाँति आकार और यश में निरन्तर बढ़ता चला गया। बाल्यावस्था में ही उसके माता-पिता की मृत्यु हो गयी और स्वयं महाराज विष्णुवर्धन ने उसका पुत्रवत् पालन-पोषण किया तथा बड़े समारोह के साथ उपनयन संस्कार किया । वह बालक इतना व्युत्पन्न था कि थोड़ी ही आयु में अस्त्र-शस्त्र-संचालन तथा अन्य विविध विद्याओं में पारंगल हो गया और महाराज ने उसका विवाह अपने एक राजमन्त्री की कन्या के साथ कर दिया। युवावस्था को प्राप्त होने के पूर्व ही वह बालवीर महाप्रचण्डनायक बना दिया गया था। उसकी कुशाग्र बुद्धि, राजमवित. निस्पृहता, संयम और धैर्य से प्रसन्न होकर राजा ने न केवल उसे अपना दण्डनायक ही बनाया, वरन उसे संवाधिकारी पदमी । दे दिया। अब कह सकल-अनोपकारी कार्यों को करने की सामर्थ्यवाला हो गया था। एक पक्ष के भीतर ही इस बालवीर सेनापति ने कौगुदेश पर भीषण आक्रमण करके शत्रु को युरी तरह पराजित किया और अपने अधीन कर लिया था। अपनी चमत्कारी विजयों के कारण वह थोड़ी आयु में ही महाराज का दाहिना हाय बन गया। ग्रेलूर के सौम्बनायकी-जिनमन्दिर की छत में उत्कीर्ण 1137 ई. के शिलालेख के अनुसार महाराज विष्णुवर्धन के पादमूल से प्रभूत तथा उन्हीं के कारुण्य-स्नेहरूपी अमृतप्रवाह से परिवर्द्धित इस महाक्रमी दण्डनायक ने आधे महीने के भीतर ही पूरे दक्षिण की (होयसल राज्य के दक्षिणवर्ती देशों की) दिग्विजय कर ली थी-चेर, चोल, पापड्य, पल्लव आदि समस्त देशों को विजय किया था। एतदर्थ उसने सुभटचूडामणि, चमुपचूडारन, चिण्णम-नियपुत्र, विपुलयशःकल्पवल्ली-विलास, नयविनयवीरवितरण, गुणसम्पन्न, विपश्चिजनैकशरण, श्रीमद्-अहंत्परमेश्वर-पद-पयोज-धरचरणा आदि विरुद प्राप्त किये थे। इस विष्णुदण्डाधिप ने अनेक पवित्र तीर्थस्थानों को प्रचुर दानादि दिये थे और अनेक सर्वजन हितोपयोगी कार्य किये थे। तदुपरान्त राजधानी द्वारसमुद्र में विष्णुवर्धन-जिनालय नाम का एक विशाल एवं अत्यन्त भव्य जिनमन्दिर बनवाया था। उसका नामकरण अपने पितृतुल्य स्वामी महाराज के नाम पर ही किया था, और उसकी प्रतिष्ठा में बह सम्मिलित भी हुए थे। मन्दिर का निर्माण और प्रतिष्ठा कराके 1137 ई. की उत्तरायण संक्रान्ति के दिन विष्णुदण्डाधिप ने महाराज से पुरस्कार स्वरूप बोललदर ग्राम तथा अन्य भूमि भी प्राप्त करके मन्दिर के खण्डप्रस्फुटित-जीर्णोद्धार, ऋषि-आहारदान और देव की पूजा-अर्चा की व्यवस्था के निमित्त दान कर दी थी। इस बालवीर दण्डनायक के गुरु द्रमिलसंघ-नन्दिगण-अरुंग-लादय के मल्लिषेण-मरतधारीदेव के शिष्य जगद्गुरु श्रीपाल-विधदेव थे।
166 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ
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