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नगर में एक अत्यन्त विशाल एवं मनोरम जिनालय अनवाया, जो रत्नखचित तथा सुन्दर मणिमयी कलशों से युक्त शिखरोंवाला उतुंग चैत्यालय था। उक्त जिनालय में भगवान् को नित्य पूजा के लिए, साधुओं के आहारदान और असहाय वृद्धा स्त्रियों को शीत आदि से रक्षा हेतु आवास एवं भोजन आदि की सुविधा देने के लिए तथा जिनालय के खण्ड-स्फुटित-जीर्णोद्धार आदि के लिए समस्त राज-करों से मुक्त कराकर यहत-सी भूमि भाई बल्लालदेव द्वारा स्यगुरु गण्डविमुक्त सिद्धान्तदेव को पादप्रक्षालनपूर्वक राजकुमारी ने समर्पित करायी थी। इस दान शासन को मल्लिनाथ नाम के लेखक ने रचा था और मणिभोज के पुत्र 'वेश्याभुजंग' विरुदधारी शिल्पी बलकोज ने उसे उत्कीर्ण किया था । लेख में राजकुमारी हरियलदेवी की तुलना सीता, सरस्वती, सुसीमा, रुक्मिणी आदि प्राचीन महिलारत्नों के साथ की गयी है और उसे पतिपरायण, चतुर्विधदान-तत्पर, विदुषी, गुणवान, भगवत-अहत-परमेश्वर के घरण नख-मयूख से जिसका ललाट एवं पलकन्युग्म सुशोभित होते रहते थे, और सम्यक्त्यचूडामणि लिखा है। उपर्युक्त दान में राजकुमारी के पिता महाराज विष्णुवर्धन की सहमत्ति थी।
सेनापति गंगराज-गंग, गंगण, गंगपय्य, मंगराज विष्णुवर्धन, होयसल के सेनापतियों में सर्वप्रधान था । वह जैसा शूरवीर, योद्धा और युद्धविजेता, सैन्यसंचालक और सुदक्ष राजनीतिज्ञ था, वैसा ही स्वामिभक्त, धर्मात्मा और परम जिनभक्त था। उसका प्रपितामह कौण्डिन्यगोत्रीय द्विज नागम था, जो ब्राह्मण होते हुए भी 'जिनधर्माग्रणी' था। नागवर्म का पुत्र धर्मास्मा मारमथ्य था जिसकी पत्नी का नाम माकणब्बे था। इस दम्पती का पुत्र एच या एधिगांक अपरनाम बुधमित्र था जो नृपकाम होयसल का आश्रित मन्त्री एवं सेनानायक था और मल्लूर के कनकनन्दि गुरु का ग्रहस्थ शिष्य था। उसकी भार्या अत्यन्त गुणवती एवं धर्मात्मा पोधिकच्चे थी जिसने अनेक धर्म कार्य किये थे, दान दिये थे, बेलगोल में भी अनेक मन्दिर बनवाये थे, और अन्त में 1121 ई. में समाधिमरमपूर्वक देह का त्याग किया था। इस धर्मात्मा दम्पती के सुपुत्र बम्मचमूप और गंगराज थे। बम्म भी होयसल नरेश के वीर सेनापति थे और उनका पुत्र एविराज विष्णुवर्धन का प्रसिद्ध दण्डनायक था। बम्पचभूप के छोटे भाई और एविराज के चाचा यह सुप्रसिद्ध गंगराज थे। इनकी भार्या विदुषी एवं धर्मपरायणा लक्ष्मीदेवी (लक्ष्मीमति, नागलादेवी या लक्कले) दण्डनायकित्ती थीं जिन्हें अपने पति की कार्यनीतिवधू' और 'रणेजयवधू' कहा गया है। आहार अभय औषधि शास्त्र, इन चारों दानों को सतत देकर उन्होंने 'सौभाग्यखानि की उपाधि प्राप्त की थीं। लक्ष्मीदेवी ने श्रवणबेलगोल में एक सुन्दर जिनालय बनवाया था जो एएमुकद्दे-बसदि के नाम से प्रसिद्ध है। उन्होंने अन्यत्र भी कई जिनालय बनवाये थे, और अन्त में संन्यासविधिपूर्वक शरीर त्यागा था। इस
होयसल राजवंश : 139