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________________ महिलारत्न के गुरु शुभचन्द्र तिद्धान्तिदेय थे। स्वयं गंगराज के भी वही गुरु थे। गंगराज और लक्ष्मीमति का पुत्र बोप्प दण्डेश था। ___अपनी शूरवीरता, महापराक्रम, राज्यसेवाओं और धर्मोत्साह के प्रताप से गंगराज ने समधिगत-पंचमहाशब्द, महासामन्ताधिपति, महाप्रचण्ड-दाइनायक, महाप्रधान, वैरिभयदायक, द्रोहधरङ्ग, विष्णुवर्द्धन-भूपाल-होयसलमहाराज-राज्याभिषेकपूर्णकुम्म, गोत्रपवित्र, भव्यजनहत्यप्रमोद, आहार-अभय-भैषज्य शास्त्र-दान-विनोद, धर्महोतरणमूलस्तम्भ, बुधजनमित्र, श्रीजैनधर्मामृताम्बुधि-प्रबर्द्धन-सुधाकर और सम्यक्त्व-रत्नाकर-जैसो सार्थक एवं महत्वपूर्ण पदवियों, विरुद और उपाधियों प्राप्त की थीं। होयसनों के शिलालेखों से प्रतीत होता है कि अपने बड़े भाई बल्लाल प्रथम की मृत्यु के उपरान्त, दूसरे भाई उदयादित्य के विरोध और पाण्ड्य एवं सान्नरों की शत्रुता के कारण जब विष्णुवर्धन की स्थिति अत्यन्त डाँबाडोल थी तो यह गंगराज का ही पराक्रम एवं कौशल था कि उसने समस्त शत्रुओं का दमन करके विष्णावर्धन का मार्ग निष्कण्टक कर दिया और उसे मामलारूद करके सका विधिवत राज्याभिषेक कर दिया था। स्वभावतया यह महाराज विष्णुवर्धन होयतल का दाहिना हाथ बन गया, और अन्त तक बना रहा। इस नरेश के सम्मुख गंगवाडे प्रदेश से एवं उसकी राजधानी तलकाई से चोलों को निकाल बाहर करने की समस्या प्रमुख थी। यह कार्य भी उसने गंगराज को ही सौंपा, और ]}}7 ई. तक वह इस कार्य में पूर्णतया सफल हुआ। उसने कर्णाटक में नियुक्त राजेन्द्र चोल के तीनों सामन्तों, आदियम, दामोदर एवं नरसिंहवर्भ को पूर्णतया पराजित करके चोलों को उस देश से बाहर निकाल भगाया और तलकाड़ पर अधिकार कर लिया । महाराज में प्रसन्न होकर गंगराज से इच्छित पुरस्कार मांगने के लिए आग्रह किया तो उस धर्मवीर ने मंगवादि देश को माँगा, क्योंकि वह प्रान्त प्राचीन जैन-तीथों और जिनमन्दिरों से भरा था जिनमें से अनेक को धर्मद्वेषी चोलों ने ध्वस्त या नष्ट कर दिया था, और गंगराज को उनका जीर्णोद्धार एवं संरक्षण करना था। यह महत् कार्य उसने बड़ी उदारता एवं तत्परता के साथ किया भी। पुरस्कार में प्राप्त गंगवाडि-96,000 प्रान्त की समस्त आय उसने प्राचीन ध्वस्त मन्दिरों के जीर्णोद्धार एवं संरक्षण, नवीन मन्दिरों के निर्माण, श्रवणबेलगोल आदि तीर्थी की उन्नति तथा अन्य विविध रूपों में जिनधर्म की प्रभावना के हितार्थ व्यय की। शिलालेखों में उसकी तुलना गोम्मट प्रतिष्ठापक मंग-सेनापति महाराज चामुण्डराय से की गयी है। देशीगण-पुस्तक-गच्छ के कुक्कुटासन-मलधारीदेव के शिष्य दर्शनमहोदधि शुभचन्द्र- सिद्धान्तिदेव उसके गुरु थे, जिन्हें उसने 1118 ई. में ही एक ग्राम पादप्रक्षालनपूर्वक समर्पित किया था। अन्य भी अनेक दान दिये थे। राजधानी द्वारसमुद्र की पार्श्वनाथ-बसदि में भी उसने अनेक जिनप्रतिभाएं प्रतिष्ठित कसयी थीं, अन्यत्र भी अनेक मन्दिरों और मूर्तियों का निर्माण एवं प्रतिष्ठा करायी थी। अपनो धर्मपत्नी, पुत्र एवं परिवार के अन्य सदस्यों के द्वारा किये गये धार्मिक कार्यों में भी 150 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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