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होयसल की इस प्रिय पट्ट-महादेवी महारानी शान्तलदेवी ने शिवगंगे नामक स्थान में, सम्भवतया स्वगुरु की उपस्थिति में, धर्मध्यान-पूर्वक स्वर्गगमन किया था। श्रवणबेलगोल के पीठाचार्य चारकीर्तिदव के गृहस्थ शिष्य बोकिमय्य नाम के लेखक द्वारा रचित तथा पूर्वोक्त सति-गन्धारण-वस के सीसरे स्तम्भ पर उत्कीर्ण शिलालेख में महारानी के स्वर्गगमन की घटना का वर्णन करते हुए उसके गुणों एवं धर्मकार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। लेख में उसे द्वितीय लक्ष्मी, अमिनवरुक्मिणी, पति-हित-सत्यभामा, पतिव्रता-प्रभाव-प्रसिद्ध-सीता, उत्त-सवतिगन्धवारण, गीत-वाद्य-सूत्रधार, मनोजराज-विजय-पताका, निजकुलाभ्युदय-दीपक, प्रत्युत्पन्नवाचस्पति, विवेक-बृहस्पति, लोकैकविख्यात, प्रतगणशील-चारित्र-अन्तःकरण, पुण्योपार्जनकरणकारण, सकलबन्दीजन-चिन्तामणि, मुनिजन-विनेयजन-विनीत, चतुःसमय-समुद्धरण, जिनधर्म-कथा-कथन-प्रमोद, आहाराभयभैषज्यशास्त्रदान-विनोद, भव्यजन-वत्सला, जिनसमय-समुदित-प्राकार, जिनधर्मनिर्मल, जिनगन्धोदक-पवित्रीकृतउत्तभांग और सम्यक्त्यचूडामणि कहा है। इसमें सन्देह नहीं है कि इस धर्मात्मा महारानी के उपर्युक्त विरुद सार्थक थे।
माधिकब्जे-महारानी की धर्मात्मा जननी माथिकब्बे दण्डाधीश नागवर्म और उनकी भार्या चन्दिकब्बे के पुत्र प्रतापी दण्डनायक बलदेवी की पुत्री थी और उनकी जननी का नाम बाधिकचे था। पति मारसिंगय्य को छोड़कर माचिकर का शेष समस्त परियार परम जिनभक्त या परिवार के सभी पुरुष कई पीढ़ियों से प्रसिद्ध पराक्रमी वीर सेनानायक एवं सामन्त रहते आये थे। पुत्री शान्तलदेवी के निधन से माता माचिकच्चे को अत्यन्त दुख हुआ और वह संसार से विरक्त हो गयौं । अतः उन्होंने श्रवणबेलगोल में जाकर अपने गुरुओं प्रभाचन्द्र, वर्धमान और रविचन्द्र की उपस्थिति में एक मास का अनशनपूर्वक सल्लेखना व्रत लिया और समाधिपरण किया। उक्त मुनिराजों ने उस साध्वी के तप संथम एवं निष्ठा की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी।
राजकुमारी हरियब्बरसि-अपरनाम हरियलदेवी, विष्णुवर्धन होयसल की सुपुत्री थी, और उसके ज्येष्ठ पुत्र त्रिभुवनमल्लकुमार बल्लालदेव की छोटी बहनों में सबसे बड़ी थी। राजकुमार अपनी इस धर्मात्मा बहन से बहुत स्नेह करता था। राजकुमारी का विवाह सिंह नामक एक और सामन्त के साथ हुआ था और उसके गुरु देशीगण-पुस्तकमच्छ के माघनन्दि के शिष्य गण्डविमुक्त-सिद्धान्तदेव थे, जिनकी वह गृहस्थ शिष्या थी। वह गुरु भी अपनी विद्वत्ता और प्रभाव के लिए जगत-विख्यात थे। हन्तूरु नामक स्थान के एक ध्वस्त जिनालय में प्राप्त 1130 ई. के शिलालेख से ज्ञात होता है कि उस काल में वह नगर कोडोंगनाइ के मलेबडि प्रान्त में स्थित था, और कोडंगिनाइ का तत्कालीन शासक उपर्युक्त कुमार बल्लालदेव था। राजकुमारी ने अपने गुरु की प्रेरणा और भाई के सहयोग से, स्वद्रव्य से उक्त हन्तिपुर
158 :: प्रमुख मोतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ