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________________ विरुद का प्रयोग के प्रति उसकी धार्मिक निष्ठा का ही सूचक है। यह प्रतापी नरेश प्रारम्भ से अन्त तक जैनधर्म का उदार अनुयायी रहा, इसमें कोई सन्देह नाहीं है । वह स्वयं ही नहीं, बल्कि उसकी रानियाँ, पुत्र-पुत्रियाँ, परिवार के अन्य सदस्यों और मन्त्री, सेनापति, राजपुरुष, सामन्त-सरदारों में से अधिकतर जैनधर्म के अनुयायी थे। विशेषकर महारानी शान्तलदेवी, राजकुमारी हरियब्बरसि, युवराज विजय - नरसिंह परम जैन थे। इनके अतिरिक्त गंगराज, बोप्प, पुर्णिस, ऐचि, बलदेव, मरियाने, भरत और विट्टियण्ण नाम के उसके आठ महाप्रचण्ड सेनापति परम जिनभक्त थे। इन्हीं जैन महावीरों ने विष्णुवर्धन को अनेक महत्त्वपूर्ण युद्धों में विजयी बनाकर होयसल राज्य को सुदृढ़, समृद्ध एवं शक्तिशाली बनाया था । महारानी शान्तलदेवी -- महाराज विष्णुवर्धन पोयसल की पट्टमहिषी थीं। राजा की लक्ष्मीदेवी आदि अन्य कई रानियाँ थीं, जिन सबमें प्रधान एवं ज्येष्ठ होने के कारण यह पट्टमहादेवी कहलाती थीं। क्योंकि अपनी सपत्नियों को यह नियन्त्रण में रखती थीं। इनका विरुद 'उद्वृत्त-सवति गन्धवारण, अर्थात् उच्छृंखल सोतों के लिए मत्तहस्त प्रसिद्ध हो गया था। अपनी सुन्दरता एवं संगीत, वाद्य, नृत्य आदि कलाओं में निपुणता के लिए यह विदुषीरत्न सर्वत्र विख्यात थीं। इनके पिता मारसिंगय्य पेगडे कट्टर शैव थे, किन्तु जननी माचिकब्बे परम जिनभक्त थीं। रानी के माना बलदेव, मामा सिंथिमय्य, अनुज दुद्दमहादेव तथा मामी, बहन, भावजें आदि भी जैनधर्म के अनुवायी थे। स्वयं महारानी शान्तिदेवी बड़ी जिनभक्त और धर्मपरावण थीं। मूलसंघ- देशीगण पुस्तकगछ- कोण्डकुन्दान्वय के मेघचन्द्र त्रैविद्यदेव के प्रधान शिष्य प्रभाचन्द्र- सिद्धान्तदेव रानी के गुरु थे उनकी वह गृहस्थशिष्या थी। इस धर्मात्मा महारानी ने श्रवणबेलगोल पर अपने नाम पर सवति मन्धवारण बसति नाम का एक अत्यन्त सुन्दर एवं विशाल जिनालय बनवाया था, जिसका श्रीमण्डप 69 फुट लम्बा और 35 फुट चौड़ा है। सन् 1122 ई. के लगभग महारानी ने उक्त जिनालय में भगवान् शान्तिनाथ की पाँच फुट उत्तुंग एवं कलापूर्ण प्रभावति संयुक्त मनोज्ञ प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। जिन प्रतिमा के दोनों ओर दो चौरीवाहक खड़े हैं, सुकनासा में यक्ष-यक्षी, किम्पुरुष और महामानसी की मूर्तियाँ हैं। गर्भगृह के ऊपर सुन्दर शिखर हैं और मन्दिर की बाहरी दीवारें कलापूर्ण स्तम्भों से अलंकृत हैं। यह बसदि अब भी उस स्थान का अति सुन्दर मन्दिर माना जाता है। महारानी ने 1123 ई. में जिनाभिषेक के लिए वहाँ मंग-समुद्र नाम के सुन्दर सरोवर का निर्माण कराया था और बसदि में नित्य देवार्चन तथा उसके संरक्षण आदि के लिए राजा की प्रसन्नता से प्राप्त एक ग्राम स्वगुरु को भेंट किया था। उक्त बसदि के आचार्यपद पर उक्त प्रभाचन्द्र-सिद्धान्तिदेव के शिष्य मुनि महेन्द्रकीर्ति को नियुक्त किया गया था। अपने अनुज दुद्दमहादेव के साथ रानी ने एक ग्राम वीर कोंगाल्य- जिनालय के लिए भी प्रदान किया था। सन् 1028 की चैत्र शुक्ल पंचमी सोमवार के दिन महाप्रतापी विष्णुवर्धन होयसल राजवंश : 157
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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