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________________ नयकौति एवं भानुकीर्ति भुनीन्द्रों का परम भक्त था, 3191 ई. में राज्याश्रय में एक सुन्दर जिनालय बनवाया, जिसे उसमे धन से पुष्ट क्रिया और स्वयं महाराज ने भी उसमें योग दिया। हालेबिड़ के निकट स्थित रस्तिहल्लि की प्रसिद्ध पार्श्वनाथ-बसदि का 1333 ई. का शिलालेख भी विष्णुवर्धन होयसल को परम आस्थावान् जैन सिद्ध करता है। उसके महादण्डाधिप (सेनापति) बोप और एचिराज ने राजधानी द्वारसमुद्र (हलेविन, हस्तिहल्लि उसी का एक भाग था) में द्रोहघरट्ट नामक भव्य जिनालय का निर्माण कराया था। मन्दिर की प्रतिष्ठा के अवसर पर हुए भगवान जिनेन्द्र के अभिषेक का पवित्र गन्धोदक लेकर उस मन्दिर का पुजारी राजा के पास बंकापुर पहुँचा, जहाँ वह उस समय छावनी डाले पड़ा था। सभी-तभी वह मसण कदम्ब नामक एक दुर्धर शत्रु सामन्त का संहार करके विजयी हुआ था, और तभी उसकी रानी लक्ष्मी महादेवी ने एक पुत्र प्रसव किया था। इस विविध संयोग से राजा अत्यन्त आनन्दित हुआ, पूजकाचार्य को देवकाल हिल से हार करबर नमस्कार करके उसका स्वागत किया और भगवान् के चरणोदक को भक्तिपूर्वक मस्तक पर चढ़ाकर कहा कि 'भगवान् विजय-पार्श्वदेव की प्रतिष्ठा के पुण्य फल से ही मैंने यह विजय और पुत्र प्राप्त किये हैं।' उसने उक्त मन्दिर का नाम भी विजय-पार्श्वदेव-यसदि निश्चित किया और उसके नाम पर ही सघाजात राजकुमार का नाम भी विजय-मरसिंहदेव रखा तथा उक्त जिनालय के लिए जागल नाम का एक पूस ग्राम भेंट किया। उसी अवसर पर अन्य लोगों ने भी उक्त जिनालय के लिए भूमि आदि के दान दिये थे। उपर्युक्त अभिलेख में विष्णुवर्धन होयसल की अनेक विजयों और युद्ध पराक्रमों का उल्लेख करते हुए उसकी विपुल गुण-प्रशंसा की है और अनेक विरुद दिये हैं जिनमें सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं-वीरगंग, त्रिभुवनमल्ल, शरणागत-बज-पंजर, विबुध-जन-कल्पवृक्ष, चतुस्समय-समुद्धरण (मुनि आर्थिका-श्रावक-श्राधिका रूप चतुर्विध संघ का संरक्षण करनेवाला), शस्तोदय-पुण्य-पुंज, वासन्तिकादेवी-लब्धवर-प्रसाद एवं मल्लिकामोद । सौम्यनायकी जिनालय के ||37 ई. के शिलालेख में राजा के एक अन्य कृपापात्र दण्डनायक विष्ट्रिय ने राजधानी द्वारसमुद्र में विष्णवर्धन-जिनालय नाम का मन्दिर बनवाया था और उसके लिए राजा से प्राप्त करके एक गाँव तथा अन्य भूमियाँ प्रदान की थीं। इस लेख में भी राजा के वीर्य, शौर्य और विजयों एवं गुणों की प्रभूत प्रशंसा है और उसे सरस्वती-निवास बताया है। सिन्दगेरे के 1138 ई. के शिलालेख में तथा श्रवणबेलगोल आदि के कई अन्य अभिलेखों में भी उसके नाम के साथ 'सम्यकवचूडामणि' उपाधि प्रयक्त की गयी है। उस शिलालेख में राजा द्वारा अपने दो अन्य जैन दण्डनायकों को प्रार्थना पर एक जिनालय के लिए ग्रामदान का उल्लेख है। रामानुजाचार्य के साथ सम्पर्क होने के बीस-बाईस वर्ष बाद भी, जब शायद उक्त आचार्य की मृत्यु मी हो चुकी थी, विष्णुवर्धन द्वारा अपने लिए 'सम्यक्त्व-चूडामणि HOWSE 156 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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