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के अलपचारों से पीड़ित होकर वह अपनी जन्मभूमि से किसी तरह प्राण बचाकर भागे थे। उसका उत्तराधिकारी कुलोतुंग चोल जैनधर्म का पोषक था, अतएव उसके समय में भी यह वापस स्वदेश न जा सके और घूमते-घूमते अन्ततः कर्णाटक में उन्होंने इस मदोदित एवं शक्तिशाली नरेश विष्णुवर्धन की शरण ली। यह घटना
॥16 ई. के लाभग की है, और उस समय रामानुज पर्याप्त वृद्ध हो चुके थे। विष्णुवर्धन विद्वानों का आदर करनेवाला, उदार, सहिष्णु और समदर्शी नरेश था। उसने इन आचार्य को शरण दी, अभय और प्रश्रय भी दिया। सम्भव है कि उसकी राजसभा में कतिपय जैन विद्वानों के साथ रामानुज के शास्त्रार्थ भी हुए हों, इनकी विद्वत्ता से भी राजा प्रभावित हुआ हो और उन्हें अपने राज्य में स्वमत का प्रचार करने की छूट भी उसने दे दी हो। एक-दो विष्णु-मन्दिर भी रामधानी द्वारसमुद्र में उस काल में बने, और उनके निर्माण में राजा ने भी द्रव्य आदि की कुछ सहायता दी हो, यह भी सम्भव हैं। यह सब होते हुए भी विष्णुवर्धन होयसल ने न तो जैनधर्म का परित्याग ही किया, न उस पर से अपना संरक्षण और प्रश्रय ही उवाया और म वैष्णव धर्म को ही पूर्णतया अंगीकार किया-उसे राज्यधर्म घोषित करने का तो प्रश्न ही नहीं था। राजा का मूल कन्नडिग नाम बिट्टिय, विहिदेव या विष्टिवर्धन था, जिसका संस्कृत रूप 'विष्णुवर्धन' था। यह माम उसका प्रारम्म से ही था, रामानुज के सम्पर्क या तथाकथित प्रभाव में आने के बहुत पहले से था, अन्यथा स्वयं जैन शिलालेखों में उसका उल्लेख इस नाम से न होता। इसके अतिरिक्त, 1121 ई. में महाराज विष्णुवर्धन ने अपने प्रधान सेनापति गंगराज के एक आत्मीय सोवण की प्रार्थना पर हादिरवामिलु जैन बसदि के लिए दान दिया था और 1125 ई. में जैनगुरु श्रीपाल त्रैविध का सम्मान किया था। वामराजपहन तालुके के शल्य नामक स्थान से प्राप्त 1125 ई. के शिलालेख के अनुसार अदियम, पल्लव नरसिंहवर्म, कोंग, कल्पाल, अंगर आदि भूपत्तियों के विजेता इस होयसल नरेश ने शल्यनगर में भक्तिपूर्वक एक जैन विहार बनवाया और इस बसदि के लिए तथा उसमें जैन मुनियों के आहार आदि की व्यवस्था के लिए 'वादीमसिंह', 'वादिकोलाहल', "तार्किक-चक्रवर्ती आदि विरुद प्राप्त, स्वगणनायक विद्वान जैनगुरु श्रीपालदेव को वही ग्राम तथा अन्य समुचित दानादि समर्पित किये थे। सन् 1129 ई. में राजा ने वेलूर-स्थित मल्लिनाथ जिनालय के लिए दान दिया था, और 1130 ई. में उसके महासेनापति मंगराज के पुत्र बोप्प ने रुवारि द्रोहघरट्टाचारि कन्ने द्वारा राज्याश्रय में शाम्तीश्वर-बसदि मामक जिनमन्दिर का निर्माण कराया था। इसी नरेश के शासनकाल में उसके दो दण्डनायकों-भरत और मरियाने ने, जो परस्पर सहोदर थे, पाँच बसदियों निर्माण करायी थीं, जिनमें से एक काणूरगण के लिए और चार देशीगण के लिए थीं। इस उपलक्ष्य में काणूरगण-तिन्त्रिणीगच्छ के गुरु मुनिचन्द्र के शिष्य मेघवन्द्रसिद्धान्ति को दान दिया गया था। राजा के अनुचर-गुणशील-व्रतनिधि पेगड़े मल्लिनाथ ने, जो
होवसल राजवंश :: 455