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धा। स्पष्ट है कि या आचार्य मात्र राजा के नहीं करन राजा-ग्रजा सभी के, पूरे राष्ट्र के गरू माने जाने लगे थे। उसी वर्ष के एक अन्य शिलालेख के अनुसार इस राजा में मूलसंघी मेयचन्द्र के शिष्य वेलवे के अभवचन्द्र मुनि को दान देकर सम्मानित किया था। राजा ने राज्य के प्रधान धान्यक्षेत्र मत्ताधर नगर की सिंचाई के लिए एक नहर निकलवायी थी। वह पूरी हो गयी तो 1064 ई. में राजा उसका निरीक्षण करने के लिए वहीं गया और उस अवसर पर जब बह ग्राम के निकट पहाड़ी पर स्थित जिनमन्दिर के दर्शन करने के लिए भी गया तो उसने मानिक्कसेहि आदि नगरप्रमुखों से पूछा कि नगर के भीतर उन्होंने कोई जिनालय क्यों नहीं बनवाया। उन्होंने विनयपूर्वक निवेदन किया कि यह कार्य उनकी सामर्थ्य से बाहर है। महाराज के पास
अपार धनराशि है, वही यह शुभ कार्य सम्पन्न कराएँ । राजा ने प्रसन्न होकर उस नगर में भी एक सुन्दर जिनालय बनवा दिया और उसके लिए उन लोगों से भी दान दिलवाया और स्वयं भी भूमि, ध्य, राजकर आदि का दाम दिया। नगर का नाम भी बदलकर ऋषिहल्लि रख दिया । राजधानी अंगटि के मगर-जिनालय की भी उसने उन्नति की। शान्तिदेव के शिष्य शब्दचतुर्मुख' उपाधिधारी अजितसेन भट्टारक का भी राजा ने सम्मान किया प्रतीत होता है। यह मरेश चालुक्य सम्राट विक्रमादित्य षष्ठ का महासामन्त एवं माण्डलिक नप था। अपने जीवन के पिछले भाग में विनयादित्य द्वितीय ने राज्यकार्य अपने पुत्र युवराज एरेयंग को सौंपकर स्वयं धर्मसाधन में जीवन व्यतीत किया था। अब वास्तविक राजा एरेयंग ही था। वह भी बड़ा पराक्रमी वीर था। होयसल राजे मेलप्पशिरोमणि (पहाड़ी राजाओं में शिरमौर)
और महामण्डलेश्वर कहलाते थे। एरेयंग ने 1094 ई. में संग्रसिद्ध दार्शनिक, तार्किक एवं वादी जैनाचार्य गोपमन्दि का सम्मान किया था, और उन्हें बेलगोल के कलक्प्यू तीर्थ की अनेक यसदियों (जिनमन्दिरी) के जीणोद्धार आदि के लिए कई गाँव दान दिये थे। गोपनन्दि के उपरान्त 'जगद्गुरु उपाधिधारी प्रसिद्ध विद्वान अजितसेन (सम्भवतया यादीमसिंह) इस राजा के गुरु हुए। याद होयसल राजे गंगमण्डल के अधीश्वर कहलाते थे और जिनधर्म की प्रभावना एवं हितसाधन में प्राचीन गंगनरेशों का अनुकरण करने में स्वयं को धन्य मानते थे । गरेचंग मे वीरगंग' उपाधि भी धारण की थी। विभयादित्य द्वितीय और त्रिभुवनमल्ल एरेयंग की मृत्यु घोड़े ही अन्तर से हुई, सम्भवतया युवराज का निधन पिता के जीवन काल में ही हो गया था। अपनी सामरिक वीरता के लिए वार चालुक्य सम्राट का बलद भुजदण्ड (दाहिनी भुजा) कहलाता था। एरेयंग की रानो चलदेवी से उसके तीन पुत्र बल्लाल, बिटिंग और उदयादित्य तथा एक पुत्री थी। यह राजकुमारी मंगवंशोत्पन्न हेम्मडिदेव के साथ विवाही गयी थी, जो परम जिनभक्त था।
बल्लाल प्रथम (1101-1166 ई.)-रेयंग का ज्येष्ठ पुत्र था। उसके धर्मगुरु एवं राजगुरु चारुकीर्ति पण्डितदेव थे, जो कुन्दकुन्दान्धय नन्दिसंघ-देशीगण-पुस्तकगरल.
होयसल राजवंश :: 153