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________________ ने तुरन्त उस पिच्छिका ( उसके मूळे या दृष्ट) के प्रहारों से सिंह को मार गिराया। कहा जाता है कि सल के पराक्रम और वीरता की परीक्षा करने के लिए ही उन्होंने अपने बल से उस कृत्रिम सिंह की सृष्टि की थी। अस्तु, गुरु बहुत प्रसन्न हुए, उसे आशीर्वाद दिया और उसे अपने लिए स्वतन्त्र राज्य स्थापन करने का आदेश दिया। लोल शार्दूल ही उन्होंने उसका राज्य चिह्न, मुकुटचिह्न एवं ध्वजचिह्न निश्चित किया। यह घटना 1006 ई. के लगभग की है। सभी से सल 'पोयसल' कहलाने लगा, जो कालान्तर में 'होय' शब्द में परिवर्तित हो गया और सल द्वारा स्थापित राज्यवंश का नाम प्रसिद्ध हुआ। जिनेन्द्र उसके इष्टदेव, मुनीन्द्र सुदत्त वर्धमान धर्मगुरु एवं राजगुरु और पद्मावती अपरनाम वासन्तिकादेवी उसके कुल एवं राज्य की अधिष्ठात्री देवी हुई। उक्त यक्षी के प्रसाद से उक्त घटना के समय एकाएक वसन्त ऋतु हो गयी थी, इसलिए यह स्वयं तभी से वासन्तिकादेवी कहलाने लगी। इस प्रकार अहिंसा धर्म के उत्कट पक्षपाती होते हुए भी जैनाचार्यों ने देश के राजनीतिक अभ्युत्थान में महत्वपूर्ण सक्रिय योग दिया। इस तथ्य का जहाँ तक दक्षिण भारत का सम्बन्ध है, यह कम से कम दूसरा उदाहरण था । आगामी पन्द्रह-सोलह वर्षों में अंगवि ( शशकपुर) को अपनी राजधानी बनाकर पोयसल मे चोलों और चालुक्यों के कगाव आदि कई सामन्तों से बुद्ध करके उनके प्रदेश हस्तगत किये, अपने राज्य की नींव जमा दी और चालुक्यों के प्रमुख सामन्तों में परिगणित होने लगा। इस सब उन्नति में गुरु सुथ उपदेश, परामर्श और पति करता रहा। उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी विनयादित्य प्रथम (1022-1047 ई.) और पौत्र काम होयसल (104760 ई.) ने उसके द्वारा प्रारम्भ किये गये कार्यों को चालू रखा। राज्य की शक्ति और विस्तार बढ़ता गया। उन दोनों राजाओं के भी धर्मगुरु एवं राजगुरु उक्त सुदत्त वर्धमान ही थे, जो शासनप्रबन्ध एवं राज्य संचालन में भी उनका सक्रिय मार्गदर्शन करते थे। गंगवाडि के जैन मुनियों में ये दोनों नरेश अपनी धार्मिकता के लिए प्रसिद्ध थे। विनयादित्य द्वितीय (1060-1101 ई.)- होयसल वंश का यह चौथा राजा बड़ा उदार, दानी, धर्मात्मा और प्रतापी था। उसके गुरु प्रमिलसंघ के जैनाचार्य शान्तिदेव थे | श्रवणबेलगोल की 1129 ई. की मल्लिषेण प्रशस्ति नामक शिलालेख के अनुसार गुरु शान्तिदेव की पादपूजा के प्रसाद से पोयसल नरेश विनयादित्य ने अपने राज्य की श्रीसम्पन्न किया था। अपने इन राजगुरु के उपदेश से विनयादित्य होयसल ने अनेक जिनमन्दिरों, देवालयों, सरोवरों, ग्रामों और नगरों का निर्माण प्रसन्नतापूर्वक कराया था। इस कार्य में वह सुप्रसिद्ध बलीन्द्र से भी आगे बढ़ गया था। अंगडि के ही 1062 ई. के एक भग्न शिलालेख से प्रकट है कि उसी वर्ष यहाँ जब उसके गुरु शान्तिदेव ने समाधिमरण किया तो स्वयं राजा ने और उसके नागरिकजनों की निगम ने मिलकर उनकी स्मृति में वहाँ एक स्मारक स्थापित किया 152 प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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