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रेचण, रचरस, रेचिराज, रेचि या रेमिय्य की माता का नाम नागाम्बिका और पिता का नारायण था। तथा पत्नी का नाम गौरी था। उसका ध्वज-चिह वृषभ था, अतएय यह 'वृषभध्यज' भी कहलाता था। 'वसुधैक-बान्धवम् उसका सुप्रसिद्ध विरुद था। दण्डाधिनाथ, महाप्रचण्डदण्डनायक, चमूपति, महासेनापति, सचिवोत्तम्प, मन्त्रीश्वर आदि पदवीधर यह वीर कलचुरि नरेश बिज्जल का दाहिना हाथ था। उस नरेश के लिए उनने सप्तांग-साम्राज्य-सम्पत्ति प्राप्त की थी और उसका उपभोग उसे तथा उसक उत्तराधिकारियों को कराया था। उसी के हाथों के सहारे कलचुरि नरेशों की राज्यरूपी लता सुखपूर्वक प्रसरित हुई थी। उक्त नरेशों से उसे अनेक जागीरें मिली थीं, जिनमें अत्यन्त सुन्दर नागरखण्ड प्रदेश प्रमुख था उस प्रान्त का शासन भी सीधे यह रेचिस्य्य ही करता था। बिज्जल के उपरान्त उसके सभी वंशजों के समय में उसका रुतबा और प्रतिष्ठा वैसी ही बनी रही, और जब कलचुरियों का सूर्य अस्त हो गया और उनके स्थान में द्वारसमुद्र के होयसल मरेश देश के स्वामी हुए तो उन्होंने भी वीर रेचिमण्य को वही पद-प्रतिष्ठा प्रदान की। सेनापति रेचिमय्य अनुपम रणशूर होने के साथ ही साथ अनुपम दानशूर भी था। यह ऐसा उदार दामी था कि जगत में साक्षात् कल्पवृक्ष की भाँति शोभायमान था। उसके सुशासन में नागरखण्ड प्रदेश की सर्वतोमुखी अभिवृद्धि हुई, और कहा आता है कि गंगराज ने सम्पूर्ण जैन जगत् के लिए जो कुछ किया दण्डाधीश रैचिमय्य ने अपने प्रान्त के लिए उससे कुछ अधिक ही किया। जिनधर्म के हित और प्रभावना के लिए उसका उद्योग अन्तहीन था।
शिकारपुर तालुके के सिक्कमागडि नामक स्थान के एक पुराने जैन सम्मेलन मन्दिर में, जो अब लिंगायतों के चेन्न बसन मन्दिर में परिवर्तित है, प्राप्त 1982 ई. के स्तम्भलेख से ज्ञात होता है कि उस समय कलबुरि नरेश शंकम के अनुज एवं उत्तराधिकारी रावनारायण आहवमल्ल का शासन था और रेचिमय्य उसी राजा की सेवा में था और उसकी ओर से नागरखण्ड का शासक था। नागरखण्ड के अन्तर्गत ही बान्धवपुर का कदम्यवंशी राजा बोप्प राज्य करता था और उसका महाप्रधान सामन्त शंकर था जिसने मागुड़ि नामक स्थान में भगवान् शान्तिनाथ का सुन्दर जिनालय बनवाया था। एक बार उक्त दोनों सज्जनों के साथ रेषण दण्डाधीश रिधिमय्य) उक्त मन्दिर में भगवान का दर्शन-पूजन करने के लिए गया था। मन्दिर की भव्यता को देखकर वह इतना प्रभावित और प्रसन्न हुआ कि उसने तलदे नामक ग्राम उसके लिए भेंट कर दिया। बन्दलिके के 1208 ई. के शिलालेख में भी विख्यात रेच चमूपति की प्रारम्भ में ही प्रशंसा की है और उसे उक्त बन्दलिके-शान्ति-जिनेश-तीर्थ की उन्नति करनेवालों में अग्रणी बताया है। असीकरे नामक स्थान के 1219 ई. के अभिलेख में लिखा है कि रत्नत्रयाधिष्ठित, धर्मप्रतिपालक, कलयूर्य-कुल-सचिवोत्तम, वसुधैकबाम्धय रेवरस चम्पत्ति ने, जो बाग-बनिता विलास-सदम, कीर्तिकौमुदी, जैनात्र-वर्द्धन, गुणगणभूषण और दयान्वित था, और उस समय होयसल नरेश
146 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ