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था। प्रतिकण्ट सिंगय्य (सिंगन या सिंगय्य के पिता का नाम सोम, पाता जक्कळी, पत्नी का भागधे और छोटे भाई का मेचि था। सिंगय्य के श्वसुर कलिदेव लोक में आदरप्राप्त, गुणनिधि और विद्वानों के आश्रयदाता थे। इस प्रकार प्रतिकण्ठ सिंगय्य एक सम्पन्न एवं प्रतिष्ठित कुल का राज्यमान्य सज्जन था। इसके इप्टदेव जिननाथ थे और गुरु मूलसंघ-सनगण-पोगरिंगच्छ के मुनिपति मुणभद्र थे। वह स्वयं जिनधर्मरूपी आकाश का सूर्य, जिनधर्मरूपी सुधासागर के बर्द्धन के लिए चन्द्रमा के समान, जिनधर्मप्राकार और जिनेन्द्र के चरणकमलों का भ्रमर था। धर्मकथाओं के कहने-सुनने में उसे बड़ा रस मिलता था। इस धमात्मा श्रावक ने अपने स्वामी दण्डाधिप बर्मदेव से प्रार्थना करके स्वयं सम्राट् से, उसके राज्य के दूसरे वर्ष (1077 ई.) में, स्वगुरु गुणभद्र के सधर्मा महासेनव्रती के शिष्य रायसेन पण्डित को मनवने नाम का ग्राम धारापूर्वक सर्वमनस्य दान के रूप में दिखाया था। दान का प्रयोजन राजधानी बल्लिगाम्चे में स्वयं उक्त नरेश द्वारा अपने कुमारकाल में निर्मापित श्रीमच्चालुक्यगंग-पेम्मानडि-जिनालय में देवार्चनपूजनाभिषेक, मुनि-आहार-दान, खण्डस्फुटित-नवकर्म आदि था। सम्राट् उस समय एतगिरी नामक स्थान में निवास कर रहा था। लेख में रामसेरपण्डित के व्याकरण, न्याय एवं काव्य ज्ञान की तुलना क्रमशः पूज्यपाद, अकलंकदेव और समन्तभद्र-जैसे पूर्वाचार्यों के साथ की है। दानशासन का लेखक गुणभद्रदेव का ही एक गृहस्थ शिष्य धावण्यमय्य था। लेख में यह भी लिखा है कि स्वधर्म का हित, उसकी उन्नाने और प्रभावना करने में
प्रशस्वी प्रतिकण्ड सिंगय्य का अत्यन्त उत्साह रहता था। वह सरस्वती का उपासक : और शौचधर्म का विशिष्ट पालक था।
::बिोय कमिमसेटि-एक धर्मात्मा जैन सेठ था, जिसने 1080 ई. के लगभग, जब बनयासि देश पर चालुक्य सम्राट् त्रिभुवनमल्न का शासन था, शिकारपुर तालुके के इसूर स्थान में एक जिनालय बनवाया था और त्याशियों एवं अनहार के हजारों ब्राह्मणों के लिए एक सत्र (भोजनशाला) स्थापित किया था।
कालियक्का- चालुक्य त्रिभुवनमल्ल के राज्यप्रतिनिधि पाण्ड्य के महाप्रधान दण्डनायक सूर्य की भार्या, ज्येष्ठ दण्डनायकिति कालियका बड़ी धर्मात्मा पहिला थी। अपनी प्रतिज्ञा की पूर्तिस्वरूप उसने 11 28 ई. में सेम्बूर में पार्श्वनाथ भगवान का एक अति सुन्दर जिनालय बनवाकर उसके लिए स्वगुरु शान्तिशयनपण्डित को प्रभूत मूदान दिया था।
योगेश्वर दण्डनायक-चालुक्य जयसिंह जयदेकमल्ल तृतीय का सेनाध्यक्ष, महाप्रधान, दण्डनायक और दनवासि देश का शासक था। उसके अधीन पेगड़े मटून-मशिलदेव जिवलिगे का शासक था। उसने तथा अन्य कई धार्मिकजनों में योग-दण्डाधिप की अनुमतिपूर्वक आयली में पार्श्व-जिनालय बनवाकर उसके लिए 1143 ई. में सेनसंघी वीरसेन के सधर्मा माणिक्यसन मुनि को पादप्रक्षालनपूर्वक भूमिदान दिया था।
राष्ट्रकूट महोल-उत्तरवर्ली चालुक्य-कलचुरि :: 143