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उपर्युक्त वर्ष में इस दम्पती ने स्वयं तथा उनको प्रेरणा से बकापुर की पाँच मतों को आश्रय देनेवाली जनता ने और नगर के महाजनों की निगम (गिल्ट) ने एक जैनमन्दिर के लिए बहुत्सा मिदान दिया था। श्री
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शान्तिनाथ दण्डाधिप - चालुक्य सम्राट् सोमेश्वर द्वितीय भुवनैकमल्ल के दाहिने हाथ और बनवासि प्रान्त के शासक, 'रायदण्ड- गोपाल विरुदधारी लक्ष्मन्नृप (लक्ष्मणराज) का प्रधानामात्य, कोषाधिकारी एवं दण्डनाथ ( सेनापति) वीर शान्तिनाथ परम जिनभक्त, प्रबुद्ध श्रावक, विद्यारसिक और श्रेष्ठ कवि था। बतगाम्बे के 1068 ई. के शिलालेख में सम्राट् और पादपद्मोपजीवी मण्डलेश्वर लक्ष्मनृप के गुणों एवं पराक्रम की प्रशस्ति बखान करने के उपरान्त लिखा है कि दण्डनाथवर शान्तिनाथ बनवास राज्य का समस्त कार्य-धुरन्धर समुद्धरणकर्ता (उसे उन्नत बनाये रखनेवाला) मुख्य अर्थाधिकारी एवं मन्त्रिनिधान था। साथ ही वह परम-जिनमताम्भोजिनी - राजहंस (जिनमतरूपी कमलिनी का राजहंस) था, क्योंकि उसने जिनमार्गरूपी अमृत में कालदोष से जो अनेक विकृतियाँ और दोष आ गये थे उन्हें क्षीर-नीर विवेक से पृथक करके भव्यजनों को जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्रोक्त शुद्ध तत्त्व रूपी दुग्धामृत का प्रसन्नतापूर्वक आस्वादन कराया था। वह सहज कवि था, चतुर कवि था, निस्सहाय कवि था, सुकर कवि और सुकवि था, मिथ्यात्यापह (मिध्यात्व को दूर भगानेवाला) कवि था, सुभग-कविनुत ( कवियों से नमस्कृत) महाकवीन्द्र था, और इसीलिए उसे 'सरस्वती-मुख-मुकुर' उपाधि प्राप्त हुई थी। सुकर रसभावादि एवं तत्त्वार्थ-निचय सूक्तियों से युक्त 'सुकुमारचरित' नामक काव्य का वह रचयिता था । असहायों पर दया करनेवाला, सुजनों का सहायक, मद-मान रहित, उत्कट दानी था। वह शुभ्रयश का स्वामी था और जिनशासन के हित में किये गये उसके कार्यकलाप स्थायी महत्त्व के थे। उसने विनयपूर्वक अपने स्वामी प्रतापी लक्ष्मनृप से प्रार्थना की कि जिनेन्द्र, रुद्र (शिव), बुद्ध और हरि (विष्णु) के स्वर्ण एवं रत्नमण्डित मन्दिरों की श्रृंखला के arrr Bart राजधानी दलिनगर पाँचों मतों के संगम के रूप में सर्वत्र विख्यात है। सम्पूर्ण विश्व में जम्बूद्वीप, उसमें भारतवर्ष और भारत के कुन्तल देश में वह बनवासि प्रान्त शाश्वत वसन्त ऋतु के समान है। इस प्रान्त में धव्यों (जैनों) का मुख्य ftare tea यह बलिपुर है, जिसकी शान्ति- तीर्थेश असदि ( जिनालय) की प्रशंसा स्वर्गों के देवता करते हैं। यह जिनभवन काष्ठ निर्मित है; यदि आप इसे पाषाण निर्मित करा दें तो अक्षय पुण्य के भागी होंगे। फलतः धर्मात् लक्ष्मनृप ने उक्त मन्दिर को पाषाण से निर्मित कराया और उसके लिए स्वयं लक्ष्मनृप ने तथा सम्राट् सामेश्वर द्वितीय ने भी उपयुक्त भूमि आदि के प्रभूत दान दिये। नवनिर्मित जिनालय का नाम मल्लिकामोद- शान्तिनाथ - बसदि प्रसिद्ध हुआ । दण्डाधिप शान्तिनाथ के गुरु मूलसंघ -देशीयगण कुन्दकुन्दाचय के वर्द्धमान मुनि थे, जिनके धर्मा या शिष्य मुनिचन्द्रदेव और सर्वनन्दि भट्टारक थे। जिनालय के प्रबन्ध का भार तथा दान
राष्ट्रकूट- चोल-उत्तरवर्ती चालुक्य कलचुरि : 141