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बलगारगण के मेघनन्दि भट्टारक के शिष्य केशवनन्दि अष्टोपवासि भट्टारक की बसदि (जिनालय) में पूजा निमित्त दलिगाँवे के मगवनवी तथा अन्य धाम के क्षेत्रों में से नियत राशि चावल के दिये जाने की व्यवस्था की थी। जिनभक्त होते हुए भी वह सर्वधर्म-सहिष्ण था। उसके आदेश से उसके दीवान नामवर्म-विभु ने यनवासि देश में जिननिलय (जिनमन्दिरों) के साथ ही साथ विष्ण-निलय, ईश्वर (शिव) निलय और मुनिगण-निलय (मुनियों के आवास) बनवाये थे।
चाकिराज-यांकणाय या चाकिमव्य पानसकुल में अपने कामराज और उसकी पत्नी अत्तिकाम्पिका का सुपुत्र था। अपने वंश का सूर्य, अर्हतशासन का स्तम्भ, कलिकाल-श्रेयांस, सभ्यक्त्व-रत्नाकर, अपने आश्रित शिष्टजनों की इष्टपूर्ति करनेवाला, आहार-अभय-भैषज्य शास्त्र रूप चतुर्विध दान-तत्पर यह धमात्मा राजपुरुष चालुक्य सम्राट् त्रैलोक्यमल्ल की महारानी केतलदेवी का गणकचूडामणि (अकाउण्टेण्ट जनरल, या दीवान) था। महारानी स्वयं उस समय पोनबाड 'अग्रहार' की शासिका थी। मूलसंघ-सेनगण-योगरिगच्छ के अनेक राजाओं द्वारा पूजित ब्रह्मसेन मुनिनाथ के प्रशिष्य और आर्यसेन मुनि के शिष्य महासेन मुनीन्द्र के चरण कमलों का यह भ्रमर था और त्रिय छात्र (विद्याशिष्य) भी था। इस किराज ने पोत्रबाड के त्रिभुवनतिलक चैत्यालय में, जिसके मूलनायक शान्तिनाथदेवं थे, पार्श्वनाथ, सुपार्श्वनाथ और शान्तिनाथ तीर्थंकरों की पृथक्-पृथक तीन सुन्दर पेदियों बनवायी थीं और उनमें मनोज्ञ जिनप्रतिमाएँ प्रतिष्ठापित की थीं। उस्त वैदियों या चैत्यालयों के लिए उसने महाराज और महारानी की अनुमतिपूर्वक, 1054 ई. में अलग-अलग बहुत-सी भूमि और मकान-जायदाद दान की थी। उनमें से सुपार्श्वनाथ का बिम्ब उसने स्वपिता कोम्मराज की पुण्यस्मृति में प्रतिष्ठापित किया था। पार्श्वनाथ की प्रतिमा मुनिमहासेन के एक अन्य छात्र जिनवर्मा ने स्थापित की थी, और शान्तिनाथ का मनोज्ञ बिम्ब चाकिराज ने स्वयं स्थापित किया था।
हरिकेसरी देव-चालयों का कदम्बर्वशी सामन्त था। स्वयं को वह 'कादम्बसम्राट मयूरवर्मन के कुल का तिलक' कहता है। सन 1055 ई. के धंकापुर के दुर्ग की एक दीवार पर उत्कीर्ण, शिलालेख के अनुसार उस समय सम्राट त्रैलोक्यमल्ल का द्वितीय पुत्र राजकुमार गंगपेमान डे-विक्रमादित्यदेव गंगवाडि और बनवासि प्रदेशों का संयुक्त शासक था। उसका महाप्रधान यह हरिकेसरीदेव कदम्ब था, जो सजकुमार के अधीन बनवासि देश पर शासन कर रहा था। इससे प्रतीत होता है कि बनवासि का प्राचीन कदम्ब धरामा अपने प्रदेश में अभी तक जीवित था और उसमें जैनधर्म की प्रवृत्ति भी पूर्वक्त चल रही थी। वह हरिकेसरीदेव भी बड़ा धर्मात्मा और दानी था, और अपने लिए प्राचीन कदम्य-नरेशों की उपाधियों प्रयुक्त करता था। उसकी पत्नी लचलदेवी भी उसी की भाँति जिनभक्त थी।
14) :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ