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को उसने आश्रय दिया था। कुछ लेखकों के पलानसार जैनाचार्य वासत्रचन्द्र को 'बाल-सरस्वती' की उपाधि इसी चालुक्यनरेश ने प्रदान की थी। उसकी जननी गंग-राजकुमारी थी और पत्नी चोल-राजकुमारी थी। राज्य प्राप्त करने के पूर्व ही, जब वह एक प्रान्तीय शासक मात्र था, उसने बनवासि प्रान्त की राजधानी बन्लिगाँव में 'चालुक्य-गंग-गोनिडिजिनालय' नाम का एक सुन्दर मन्दिर बनवाया था, जिसके नाम में उसने अपने पितृवंश एवं मालवश दोनों ही कुलों की स्मृत्ति सुरक्षित की, और स्वयं भी 'चालुक्य-गंग-मनडि' उपाधि धारण की । अपने राज्य के दूसरे वर्ष (1077 ई.) में उसने बनवासि के शासक दण्डनायक बम्मदेव तथा उसके अनचर धर्मात्मा श्रावक प्रतिकण्ठसिंगय्य की प्रार्थना पर उक्त जिनालय में देवपूजा, मुनि-आहार आदि की व्यवस्था के लिए एक ग्राम का दान किया था। दान लेनेवाले मुनि रामसेनपण्डित पूलसंघ-सेनगण-पोगरिंगच्छ के गुणभद्रदेव के शिष्य और महासेन के सधर्मा थे। गुलया जिले के हुनसि-हदलो नामक स्थान में स्थित पद्मावती-पार्वनाथ जिनालय के शिलालेख से प्रतीत होता है कि वह जिनमन्दिर भी इसी चालुक्य सम्राट् द्वारा बनवाया गया था। अनुश्रुतियों के अनुसार बेलबोला जिले में उसने अनेक जिनमन्दिरों का निर्माण कराया था, और पूर्वकाल में चोलीबारी ध्वस्त भन्दिरों में से नको का 18 : जीर्णोद्धार भी कराया था। आचार्य अर्हन्दि इस नरेश के धर्मगुरु थे। यद्यपि उसका व्यक्तिगत एवं कुलधर्म जैनधर्म था; यह सम्रार सर्व-धर्मसहिष्णु था और लोकव्यवहार में सभी धर्मों का प्रतिपालन करता था। स्थापत्य शिल्प की चालुक्य शैली के विकास का प्रधान श्रेय भी उसे ही है। सम्राट विक्रमादित्य षष्ठ की ज्येष्ठ रामी अक्कलदेवी इंगलंगि प्रान्त की शासिका थी। अपने कुशल प्रशासन एवं वीरतापूर्ण कायों के लिए उसने बड़ी ख्याति अर्जित की थी। यह कलिकाल-पार्वती तथा अभिनव-सरस्वती कहलाती थी और जैनधर्म की अनुयायी थी। उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी सोमेश्वर तृतीय भूलोकमल्ल (1128-39) एक शान्तिप्रिय एवं साहित्यरसिक नरेश था। उसने 'अभिलषितार्थ-चिन्तामणि अपर नाम 'राजपानसोल्लास' नामक पहाग्रन्थ की रचना की थी, जी एक प्रकार का विश्वकोश-जैसा था, और "सर्वज्ञ' विरुद धारण किया था। उसके उत्तराधिकारी जयसिंह तृतीय, तैल तृतीय, सोमेश्वर चतुर्थ आदि निर्बल शासक थे, और 12वीं शती के अन्त के पूर्व ही कल्याणी के इन उत्तरवर्ती चालुक्यों की सत्ता प्रायः समाप्त हो गयी। इस चालुक्य-युग में होयसल, गंग, सान्तर, रह आदि कई राजवंश-उपराजयंश उदय में आये, जिनके प्रमुख जैन सदस्यों का परिचय आगे दिया जाएगा, किन्तु उनके अतिरिक्त भी कतिपय उल्लेखनीय जैन व्यक्ति हुए हैं, यथा--
याण्डरायरस-चालुक्य सम्राट् त्रैलोक्यमल्ल के समय में बनवासि-12,000 देश का महामण्डलेश्वर था, गरुण्ड-मेहरा', 'प्रत्यक्ष-विक्रमादित्य', 'जगदेकदानी' आदि उसके विरुद थे। सम्भवतया उसका पूरा नाम चामुण्डरायरस था 1 इस राजपुरुष ने 1048 ई. में अपनी राजधानी बल्लिगाँव में जजाहति-शान्तिनाथ संस्थान से सम्बद्ध
राष्ट्रकूट-चोल-उत्तरवर्ती चालुक्य-कलचुरि :: 139