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________________ लक्ष्मणराज का दण्डनाथ ( सेनापति) शान्तिनाथ था । मन्दिर भी सम्भवतया उसी मे बनवाया था। सन् 1074 में जब भुवनैकमल्लदेव बंकापुर में निवास कर रहा था तो उसने अपने पादपद्मपजीती कोलालपुर के स्वामी चालुक्य पेम्माडि भुवनैकवीर महाराज की प्रेरण शान्तिनाथ-बसा का जीर्णोद्धार कराया, उसे नया बना दिया, और एक नवीन प्रतिमा भी उसमें प्रतिष्ठित करायी थी तथा उक्त मन्दिर के लिए एवं मुनियों के चतुर्विध दान की व्यवस्था के लिए मूलसंघ क्राणुरगण के परमानन्द सिद्धान्तदेव के शिष्य कुलचन्द्रदेव को नागरखण्ड में भूमि प्रदान की थी। श्रीमद मल्ल के पुत्र के द्वारा यह दानशासन उक्त मुनिराज को प्राप्त हुआ था। इसी नरेश के शासनकाल के अन्तिम वर्ष ( 1076 ई.) के गुडिगेरी से प्राप्त शिलालेख में श्रीमद् भुवनैकमल्ल - शान्तिनाथदेव नामक जिनालय को सर्व 'नमस्य' दान के रूप में 20 मत्तर भूमि दिये जाने का उल्लेख है, जिससे स्पष्ट है कि उक्त जिनालय का निर्माण, बहुत सम्भव है, स्वयं सम्राट् भुवनैकमल्ल ने ही कराया था। ऐसा प्रतीत होता है कि यह अपेक्षाकृत शान्तिप्रिय नरेश सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ का विशेष भक्त था। उसी शिलालेख से पता चलता है कि उस समय गुडिगेरी नामक स्थान में 'परवादिशरभभेरुण्ड' विरुदधारी श्रीनन्दपण्डितदेव निवास करते थे। उनके शिष्य अष्टोपवासिगन्ति थे जो जिनधर्म का उद्धार करने में प्रसन्न थे। प्रभाकरव्य उस क्षेत्र का पैगार्डे (अधिकारी) था । परमजिनधर्म भक्त सिंगथ्य उक्त श्रीमदिति का कारिन्दा या पटवारी (सेनबोव) तथा गृहस्थशिष्य था । पुलिगेरी में पूर्वकाल में चालुचक्रवती विजयादित्यवल्लभ की छोटी बहन कुंकुम- महादेवी द्वारा निर्मापित आनेसेज्जेय- बर्साद के जैनमन्दिर के अधिकार में एक प्राचीन ताम्रशासन द्वारा जो जमींदारी चली आ रही थी वह परम्परा से इन श्रीनन्दिपण्डित को प्राप्त हुई थी। उसी की व्यवस्था सिंगय्य द्वारा उन्होंने इस प्रकार करायी थी कि एक भाग तो उक्त भुवनैकमल्ल जिनालय को मिला, एक भाग शिष्य अष्टोपवासिगन्ति को ध्वजाक के बारह ग्राम प्रमुखों की देख-रेख में पार्श्व-जिमेश्वर की पूजा तथा शास्त्र लिखनेवाले लिपिकों के भोजन प्रबन्ध के लिए दिया गया, एक भाग मुनियों के आहार दान आदि की व्यवस्था के लिए दिया गया, और कुछ भूमि विभिन्न कर्मचारियों को बाँट दी गयी। विक्रमादित्य षष्ठ त्रिभुवनमल्ल साहसतुंग (1076-1128 ई.) - पूर्ववर्ती नरेश का अनुज था और सम्भवतया उसे पदच्युत कर एवं बन्दी बनाकर उसने सिंहrer earn किया था। यह इस वंश के अन्तिम नरेशों में सर्वमहान् था, बड़ा प्रतापी और विजेता था तथा निरन्तर युद्धों में व्यस्त रहा। उसने अपने राज्याभिषेक की तिथि से 'चालुक्य विक्रम वर्ष' नाम का अपना संवत् भी चलाया था। काश्मीर के महाकवि विल्हण ने इसके आश्रय में रहकर इसी के लिए अपने 'विक्रमांक- देव-चरित' शीर्षक महाकाव्य की रचना की थी। यह सम्राट् बड़ा विद्यारसिक था । अनेक विद्वानों 138 प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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