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बार ग्रीष्म ऋतु में वह जब श्रवणबेलगोल में गोम्मट-स्वामी का दर्शन करने के लिए पर्वत पर चढ़ रही थी तो तीखी धूप से सन्तप्त हो सोचने लगी कि इस समय वर्षा हो जाती और तत्काल आकाश पर मेघ छा गये तथा वर्षा होने लगी। सती असीम भक्ति से भगवान की पूजा कर सन्तुष्ट हुई।
सत्याश्रय इरिव बेडेग (997-1009 ई.) ने अपने पिता तैलप द्वितीय के शासनकाल में ही अपनी वीरता, पराक्रम और रणकौशल के लिए ख्याति प्राप्त कर ली थी। पिता की आक्रमणकारी नीति ही उसने चालू रखी, किन्तु यथावसर रण के स्थान में नीति का भी उपयोग किया, पि को दबाया तो राजराजा चोल से मैत्री-सन्धि भी कर ली। उसके समय में साम्राज्य की शक्ति और समृद्धि में कुछ वृद्धि ही हुई; हानि नहीं हुई। इस नरेश के गुरु कुन्दकुन्दान्वय के द्रमिलसंधी त्रिकालमौनी भट्टारक के शिष्य बिमलचन्द्र पण्डितदेव थे, किन्तु उनका समाधिमरण उसके यौवराज्य काल में 990 ई. के लगभग ही हो गया प्रतीत होता है। अंगडि नामक स्थान में उक्त पण्डितदेव की एक अन्य गृहस्थ शिष्या हबुम्बे की छोटी बहन शान्तिपथ्ये में गुरु की पुण्य स्मृति में एक स्मारक निर्माण कराया था। यह तथ्य उसी स्थान से प्राप्त एक शिलालेख से प्रकट है। उसी लेख में उक्त गुरुदेव के गुणों की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि वह श्रीमद् इरिवधेडेंग के गुरु थे। राष्ट्रकूट इन्द्रराज चतुर्थ के समाधिविषयक शिलालेख में भी, जो हेमावती नामक स्थान से प्राप्त हुआ है, जिस एलेक्-बेड़ेंग के साथ इन्द्रराज के शौर्वपूर्ण युद्धों का वर्णन है यह भी यही चालुक्य युवराज ही था। ऐसा प्रतीत होता है कि राजनीतिक प्रतिद्वन्द्विता और रणक्षेत्रीय शत्रुता के बावजूद यह दोनों युवा वीर एक-दूसरे के गुणों पर मुग्ध थे और अन्ततः अच्छे मित्र हो गये थे। सत्याश्रय के अन्य गुरु उसी द्रमिलसंघ के कनकसेनवादिराज और श्रीविजय ओडेयदेव थे। उसका प्रधान राज्याधिकारी उसके परम मित्र नागदेव और देवी अन्तिमञ्चे का सुपूत्र पदुवेल तेल था जो अपनी लोकपूजित जननी का अनन्य भक्त होने के साथ ही साथ परम स्वामिभक्त, सुयोग्य, स्वकार्यदक्ष एवं जिनेन्द्रभक्त था। रम्न और पोन्न दोनों ही महाकवियों का यह भी प्रश्रयदाता था। स्वयं सम्राट् सत्याश्रय इरिव बेडेंस भी जिनभक्त था, इस विषय में कोई सन्देह नहीं है।
जयसिंह द्वितीय जगदेकमल्ल (1014-1042 ई.)-इस वंश का पाँचों नरेश था और सत्याश्रय के अनुज दशया का तृतीय पुत्र था। कुछ विद्वान् इसे जयसिंह ततीय कहते हैं और इसका राज्यारम्भ 1018 ई. में हआ मानते हैं। जगदेकमल्ल, चालुक्यचकी, मल्लिकामोद आदि उसके विरुद थे। धारा का परमार भोजदेव और तंजौर का राजेन्द्र चोल उसके प्रबल प्रतिद्वन्दी थे। दोनों से ही उसके युद्ध हुए और अन्ततः दोनों के ही साथ उसने मैत्री सन्धियाँ कर ली थी। वह अच्छा प्रतापी नरेश था, और जैनधर्म का विशेष भक्त था। अनेक जैन विद्वानों और गुरुओं का उसने
राष्ट्रकूट-चोल-उत्तरवर्ती चालुक्प-कलचुरि : 133